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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
[गा० ३७५ -
तस्यैव स्वरूपं निरूप्य ध्येयत्वेन स्वीकरोति
कम्मजभावातीदं जाणगभावं विसेसमाधारं । तं परिणामी जीवो अचेयणं पहुदि इयराणं ॥३७५॥ सव्वेसि सब्भावो जिणेहि खलु पारिणामिओ भणिओ।
तम्हा णियलाहत्थं शेओ इह पारिणामिओ भावो ॥३७६॥ विशेषार्थ-तत्त्वार्थके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहा है और जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। पुण्य और पापको भी पृथक् गिननेसे उनकी संख्या नौ हो जाती है। जिसका आस्रव होता है,वह द्रव्य और आस्रव करनेवाला भाव ये दोनों आस्रवतत्त्व हैं । बन्धने योग्य द्रव्य और बन्धन करनेवाला भाव ये दोनों बन्धतत्त्व हैं। जिसका संवर होता है वह द्रव्य और संवर करनेवाला भाव ये दोनों संवरतत्त्व हैं । निर्जरा योग्य द्रव्य और निर्जरा करनेवाला भाव ये दोनों निर्जरातत्व हैं। मोक्ष होने योग्य द्रव्य और मोक्ष करनेवाला भाव ये दोनों मोक्षतत्त्व हैं। विकारी होने योग्य द्रव्य और विकार करनेवाला भाव ये दोनों पुण्य भी हैं और पाप भी हैं। इस तरह से जोव और अजीवके मेलसे ये नौ तत्त्व होते हैं। केवल एकके ही आस्रवादि नहीं हो सकते। इनको यदि बाह्य दृष्टिसे देखा जाये तो जीव और पुदगलकी अनादिबन्ध पर्यायको अवस्थामें ही ये वास्तविक है । किन्तु एक जीव द्रव्यके ही स्वभावका अनुभवन करनेपर अवास्तविक है, क्योंकि जीवके एकाकार स्वरूपमें यह नहीं है। इसलिए निश्चय दृष्टिसे इन तत्त्वोंमें एक जीव ही प्रकाशमान है। इसी तरह अन्तर्दृष्टि से देखा जाये तो ज्ञायकभाव जीव है। जीवके विकारका कारण अजीव है। शेष सातों पदार्थ केवल अकेले जीवका विकार नहीं है, किन्तु अजीवके विकारसे जोवके विकारके कारण है। जीवके स्वभावको छोड़कर स्वपरनिमित्तक एक द्रव्यपर्याय रूपसे अनुभव न करनेपर ये भूतार्थ हैं। किन्तु सब कालमें स्थायी एक जीव द्रव्यके स्वभावका अनुभवन करनेपर.अभूतार्थ हैं। अतः इन नौ तत्त्वोंमें निश्चयदृष्टिसे एक जीवरूप हो प्रकाशमान है।वह जीवस्वभाव है-शुद्ध जीवत्वरूप पारिणामिक भाव है । वस्तुतः उसीकी श्रद्धा सम्यग्दर्शन, उसीका ज्ञान सम्यग्ज्ञान और उसी में स्थिति सम्यक्चारित्र है। उसकी श्रद्धा और ज्ञानके बिना इस संसार-समुद्रसे पार होना संभव नहीं है ॥
आगे उसीका स्वरूप बतलाकर उसीको ध्येय-ध्यानके योग्य कहते हैं
कर्मजन्यभावसे रहित जो ज्ञायक भाव है, जो विशेष आधाररूप है,वही जीवका पारिणामिक भाव है। शेष द्रव्योंमें अचेतनपना आदि पारिणामिक भाव है। जिनेन्द्रदेवने पारिणामिकको सभी द्रव्योंका स्वभाव कहा है। इसलिए आत्मलाभके लिए इस संसारमें पारिणामिक भाव ही ध्येय ध्यानके योग्य है ।।३७५-३७६॥
विशेषार्थ-ऊपर जो पांच भाव बतलाये हैं, उनमेंसे चार भाव तो कर्मनिमित्तक है।एक भाव कर्मके उदयसे होता है और तीन भाव कर्मके उपशम, क्षय या क्षयोपशमसे होते हैं। किन्तु पारिणामिक भावमें कर्मका किसी भी प्रकारका निमित्त नहीं है। वह स्वाभाविक भाव है। वही वस्तुका स्वरूपभूत है। यह पारिणामिक भाव सभी द्रव्योंमें पाया जाता है क्योंकि प्रत्येक द्रव्य अपने स्वभावको लिये हुए है । उसके बिना द्रव्यकी सत्ता हो संभव नहीं है । अन्तर इतना ही है कि जोवका पारिणामिक भाव चैतन्य है, किन्तु शेष द्रव्योंका अचैतन्य है, क्योंकि शेष सभी द्रव्य अचेतन है । अस्तित्व, वस्तुत्व, नित्यत्व, प्रदेशत्व आदि पारिणामिक भाव सभी चेतन-अचेतन द्रव्योंमें समानरूपसे पाये जाते हैं । किन्तु चैतन्य जीवमें ही पाया जाता है। यह चैतन्यभाव जिसे शुद्ध जीवत्वभाव भी कहते हैं, वही ध्येयरूप है। उसे ही सहजशुद्ध पारिणामिक भाव कहते हैं। आगममें उसे निष्क्रिय कहा है अर्थात् न वह बन्धके कारणभूत रागादि परिणतिरूप है और न मोक्षके कारणभूत शुद्धभावना परिणतिरूप है। वह तो केवल ध्येयरूप है ध्यानरूप नहीं है, क्योंकि ध्यान तो किन्तु शुद्ध पारिणामिक भाव अविनाशी है। शुद्धपारिणामिक भावमें ही शक्तिरूप मोक्ष स्थित रहता है । उसीके ध्यानसे उसकी व्यक्ति होती है।
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