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उक्तं च
नयचक्र
दव्वसुयादो भावं भावादो होइ भेयसण्णाणं । संवेणसंवित्ति केवलणाणं तदो भणियं ॥ १ ॥ संवित्तिस्वरूपं तस्यैव स्वामित्वं भेदं सामग्रीं चाह
लक्खणदो णियलक्खं अणुहवमाणस्स जं हवे सोक्खं । सा संवित्ती भणिया सयलवियप्पाण णिद्दहणा ॥ ३५१ ॥ समणा सराय इयरा पमादरहिया तहेव इयरा अणुहव चायपमादो सुद्धे इयरेसु विकहाई ॥३५२॥
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कहा भी है
द्रव्यश्रुतसे भावश्रुत होता है, भावश्रुतसे भेदज्ञान होता है । भेदज्ञानसे आत्मानुभूति होती है और आत्मानुभूति से केवलज्ञान होता है । इसका आशय यह है कि मोक्षार्थीको आगम और अध्यात्म शास्त्रका अभ्यास करना चाहिए|उसके बिना भेदज्ञान नहीं होता और भेदज्ञानके बिना आत्मानुभूति नहीं होती । क्योंकि आगमाभ्यास के बिना गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणा आदिका बोध नहीं होता और अध्यात्मके जाने बिना इस सबसे भिन्न मैं हूँ - इस प्रकारका बोध नहीं होता । ऐसा बोध न होनेसे अपने आत्माको भावकर्मरूप रागादि विकल्पोंसे और ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्मोंसे भिन्न नहीं जानता तथा नोकर्मरूप शरीर आदिसे भी अपनेको भिन्न नहीं जानता । इस प्रकारका भेदज्ञान न होनेसे अपनी शुद्ध आत्माकी ओर रुचि कैसे हो सकती है ! अतः द्रव्यश्रुत अर्थात् परमागमको पढ़कर द्रव्य, गुण, पर्यायका सम्यक ज्ञान करना चाहिए। पीछे आगमके आधारसे स्वसंवेदन ज्ञान होने पर स्वसंवेदन ज्ञानके बलसे केवलज्ञान प्रकट होता है ।
आगे संवित्तिका स्वरूप उसके स्वामी, भेद और सामग्रीको कहते हैं
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लक्षणके द्वारा अपने लक्ष्यका अनुभव करते हुए जो सुख होता है उसे संवित्ति कहते हैं । वह संवित्ति समस्त विकल्पोंको नष्ट करनेवाली है ||३५१ ॥
विशेषार्थ - आगमके अभ्याससे आत्माके स्वरूपको जानकर उस स्वरूपका अनुभव करते समय जो आन्तरिक सुख होता है उसे संवित्ति कहते हैं । यह संवित्ति सम्यग्दृष्टिको ही होती है । आत्म स्वभावको जानकर भी उसमें रुचि होना चाहिए । रुचि हुए बिना आत्मानुभव नहीं होता । आत्मानुभव ही समस्त संकल्पविकल्पों का नाशक है, क्योंकि आत्मानुभूति कालमें कोई संकल्प-विकल्प नहीं रहता । ज्यों-ज्यों उसमें स्थिरता आती जाती है, त्यो त्यों विकल्पोंसे छुटकारा होकर निर्विकल्प दशा प्राप्त होती जाती है ।
संवित्तिका स्वरूप बतलाकर आगे उसके स्वामी का कथन करते हैं-
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श्रमण, सरागी और वीतरागी तथा प्रमादरहित और प्रमादसहित होते हैं। प्रमादको त्याग कर शुद्ध आत्माका अनुभव करो । प्रमादसहित में तो विकथा आदि प्रमाद रहते हैं ||३५२ ||
विशेषार्थ - छठे गुणस्थानका नाम प्रमत्त संयत | चूँकि इस गुणस्थान में संयम के साथ प्रमाद भी रहता है, इसलिए इसे प्रमत्तसंयत कहते हैं । श्रमणपना इसी गुणस्थानसे प्रारम्भ होता है । इसके साथ जो संयत शब्द जुड़ा है, वह इसी बातका बोधक है कि यहाँसे आगेके सब गुणस्थान संयमीके ही होते हैं । स्त्रीकथा, भोजनकथा, राष्ट्रकथा और राजकथा ये चार विकथाएँ, चार कपायें, पाँच इन्द्रियाँ, एक निद्रा और एक स्नेह ये पन्द्रह प्रमाद हैं । सातवाँ गुणस्थान अप्रमत्तसंयत है । अतः श्रमण या संयमी प्रमादसहित भी होते हैं और प्रमादरहित भी होते हैं। दसवें गुणस्थान तक राग रहता है। आगे नहीं रहता । अतः श्रमण
१. होइसव्वस - मु० । २. तहेव सहियाओ मु० । समणा सुद्धवजुत्ता सुहोवजुत्ता य होंति समयम्हि | सुवि सुवजुत्ता अणासवा सासवा सेसा ॥ - प्रवचनसार ३।४५ ॥
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