Book Title: Naychakko
Author(s): Mailldhaval, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 218
________________ १६८ द्रव्यस्वभावप्रकाशक [गा०३३६ तवपरिसहाण भेया गुणा हु ते उत्तरा य बोहव्वा । दसणणाणचरित्तं तववीरिय पंचहायारं ॥३३६॥ नवधा भक्तिपूर्वक दिये गये नवकोटि विशुद्ध आहारको छियालीस दोष बचाकर ग्रहण करना एषणा समिति है। धर्म और चर्या के योग्य द्रव्यों को देखकर ग्रहण करना और त्यागना आदान निक्षेपणपमिति है। निर्जन्तुक भूमिमें मल, मत्र आदिको त्यागना उत्सर्गसमिति है । पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंमें रागभावको छोड़कर इन्द्रियोंका निग्रह करना पंचेन्द्रिय निरोध है। सामायिक चतुर्विशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक हैं । जीवन-मरण, लाभ-हानि, संयोग-वियोग, शत्रु-मित्र, सुख-दुःखमें सदा समभाव रखना सामायिक है। भक्तिपूर्वक चौबीस तीर्थंकरोंके गणोंका स्तवन करना चन्दिशतिस्तव है। किसी एक तीर्थकर की विनय आदि करना वन्दना है। प्रमादसे लगे हुए दोषोंकी विशद्धिको प्रतिक्रमण कहते हैं । आगामी दोषों को दूर करनेके लिए जो त्याग आदि किया जाता है उसे प्रत्याख्यान कहते हैं। अतिचारोंकी विशुद्धिके लिए खड़े होकर दोनों हाथोंको लटकाकर निश्चल होना कायोत्सर्ग है। ये छह कर्तव्य व्याधि आदि होने पर भी अवश्य करणीय हैं, इसीलिए इन्हें आवश्यक कहते हैं। वस्त्रका सर्वथा त्याग करके सर्वदा नग्न दिगम्बर विचरण करना साधुका मूल गुण है । दो मास, तीन मास या चार मासमें अपने सिर और दाढ़ीके बालोंको स्वयं अपने हाथसे उखाड़ना केशलोच है । सदा स्नान नहीं करना, भूमिमें अथवा लकड़ी या पाषाणकी शिलापर पैर फैलाकर एक करवटसे शयन करना, खड़े होकर अपने हस्तपटमें भोजन करना, तथा एक ही बार भोजन करना, और दन्तमंजन न करना ये सब साधुके २८ मूलगुण हैं। इनका धारण करना आवश्यक है। ये सब कार्य आत्मज्ञान-श्रद्धान मूलक हो करणीय हैं। उसके बिना तो केवल कायक्लेशमात्र ही है। आगे श्रमणके उत्तर गुणोंको कहते हैं तप और परीषहोंके भेदोंको साधुके उत्तर गुण जानना चाहिए। दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार ये पांच प्रकारके आचार हैं ।।३३६।। विशेषार्थ-रत्नत्रयको प्राप्ति के लिए इच्छाओंका रोकना तप है । अथवा कर्मोकी निर्जराके लिए मार्गके अविरुद्ध जो तपस्या की जाती है उसे तप कहते हैं। वह तप दो प्रकारका है-बाह्य और आभ्यन्तर । भोजनका त्याग आदि बाह्यद्रव्यको जिसमें अपेक्षा होती है तथा जो दूसरोंके भी दृष्टिगोचर हो जाता है उसे बाह्यतप कहते हैं। उसके छह भेद है-अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश । मन्त्रसाधन आदि लौकिक फलको इच्छाके बिना राग द्वेषको नष्ट करनेके लिए, कर्मोको निर्जराके लिए, इन्द्रियोंको वशमें करनेके लिए तथा ध्यान और अध्ययनमें मनको लगानेके लिए उपवास करना अनशन तप है । निद्रापर विजय पाने के लिए, दोषोंकी शान्तिके लिए, प्रमादसे बचनेके लिए,भूखसे कम भोजन करना अवमौदर्य है । आशाको निवृत्तिके लिए भिक्षार्थी मुनि जो एक, दो घर ही भिक्षाके लिए जानेका नियम करता है या अमुक प्रकारके दाताके द्वारा अमुक प्रकारका आहार मिलेगा तो लंगा, इत्यादि नियम करता है उसे वृत्तिपरिसंख्यानतप कहते हैं। इन्द्रियोंके दमनके लिए घी, दूध, दही, गुड़, तेल आदि रसोंको त्यागना रसपरित्याग तप है । स्वाध्याय और ध्यानकी सिद्धि के लिए तथा ब्रह्मचर्यको रक्षाके लिए स्त्री, पशु, दुष्टजन आदिसे रहित, पर्वत, गफा, स्मशान, शन्य मकान, या उद्यान, वन आदि एकान्त प्रदेशोंमें आसन लगाना, शयन करना विविक्तशय्यासन तप है। वर्षाऋतुमें वृक्षके नीचे, ग्रीष्मऋतु में पर्वतके ऊपर, शीतऋतुमें खुले हए स्थानमें ध्यान लगाना, तथा अनेक प्रकारके आसनोंके द्वारा शरीरको कष्ट देना कायक्लेश है। यह कायक्लेश अचानक कष्ट आ जाने पर उसे सहन कर सकनेकी क्षमताके लिए और विषयसुखको चाहको रोकने के लिए किया जाता है। जिसमें बाह्यद्रव्यको अपेक्षा नहीं होती तथा जिनमें मनोनियमन पर ही विशेष बल रहता है उन्हें आभ्यन्तर तप कहते हैं । आभ्यन्तर तपके भी छह भेद हैं--प्रायश्चित्त, विनय, वैयावत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान । कर्तव्यकर्मके न करनेपर और त्यागने योग्यका त्याग न करने में जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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