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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
[ गा० ३४३
उक्तं च
णिच्छयदो खलु मोक्खो तस्स य हेऊ हवेइ सब्भूदो। उवयरियासब्भूओ सो विय हेऊ मुणेयव्वो ॥२।। विवरोए फुडबंधो जिणेहिं भणिओ विहावसंजुत्तो।
सो वि संसारहेऊ भणिओ खलु सव्वदरसीहिं ॥३४३॥ वीतरागचारित्रामावे कथं गौणत्वमित्याशंक्याह
मज्झिमजहणुक्कस्सा सराय इव वीयरायसामग्गो।
तम्हा सुद्धचरितं' पंचमकाले वि देसदो अस्थि ॥३४४॥ रोकनेके लिए प्रवृत्ति के विषयोंको त्यागना होता है। अतः स्वभावमें लीन होनेके लिए यह आवश्यक है कि हम अवतसे व्रतकी ओर आय । ज्यों-ज्यों हम स्वभावमें लीन होते जायेंगे प्रवत्तिरूप व्रत, नियमादि स्वतः छूटते जायेंगे। अतः स्वभावकी आराधनाके समय व्यवहारको गौण करनेका उपदेश दिया है। यदि उस समयमें भी रुचि व्यवहारकी ओर ही रही तो स्वभावमें लीनता हो नहीं सकेगी। व्यवहार तो आनुषंगिक है, उसका उपदेश तो अशुभ प्रवृतिसे बचनेके लिए है। मगर शुभमें प्रवृत्ति भी एकान्ततः उपादेय नहीं है । निश्चयरूप व्रत तो शुभाशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्ति रूप ही है। और वही वस्तुतः संवर, निर्जरा और मोक्षका हेतु है । किन्तु इस हेतुका भी जो हेतु होता है, उसे भी व्यवहारनयसे संवर, निर्जरा आदिका कारण कहा जाता है । जैसे सद्भूत व्यवहारनयसे आभ्यन्तरमें रागादिका त्याग और उपचरित असद्भूत व्यवहारनयसे पंचेन्द्रिय-सम्बन्धी विषयोंका त्याग । पंचेन्द्रिय-सम्बन्धी विषयोंका त्याग किये बिना आभ्यन्तरमें रागादिका
नहीं है और आभ्यन्तर रागादिका त्याग किये बिना आत्मस्वभावमें तल्लीनता सम्भव नहीं है। ज्यों-ज्यों रागादि घटते जाते हैं.त्यों-त्यों स्वभावमें लीनता बढ़ती जाती है और ज्यों-ज्यों स्वभावमें लीनता बढ़ती जाती है,त्यों-त्यों रागादि घटते जाते हैं ।
कहा भी है-निश्चय से मोक्ष होता है। उसके हेतुको उपचरित सद्भूत कहते हैं । जो असद्भूत है उसे भी हेतु जानना चाहिये।
यदि स्वभावको आराधनाके समयमें भी व्यवहारको मुख्यता रही तो स्पष्ट रूपसे बन्ध होता है,ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है। सर्वज्ञ सर्वदर्शी जिनदेवोंने विभावसे संयुक्त अवस्थाको संसारका कारण कहा है ॥३४॥
___वीतरागचारित्र स्वभावरूप है और सरागचारित्र विभावरूप है। वीतरागचारित्र वीतरागदशामें ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थानमें होता है। ऐसी अवस्थामें यह शंका होती है कि वीतरागचारित्रके अभाव में अर्थात् सप्तम आदि गुणस्थानोंमें व्यवहारको गौणताका प्रश्न ही नहीं है, क्योंकि जब वहां वीतरागचारित्र नहीं है तो स्पष्ट है कि वहाँ सरागचारित्र जो व्यवहाररूप है उसकी प्रधानता है,तब उसे गौण कैसे किया जा सकता है ? इसका उत्तर देते हैं
जैसे सरागदशाके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद होते हैं, वैसे ही वीतरागदशाके भो जघन्य, मध्यम उत्कृष्ट भेद होते हैं । अतः एकदेश बोतरागचारित्र पंचमकालमें भी होता है ।।३४४।।
विशेषार्थ-पहले लिख आये हैं कि आगममें पहले, दूसरे और तीसरे गुणस्थानमें उत्तरोत्तर मन्दरूपसे अशुभोपयोग कहा है । तथा चोथे, पांचवें और छठे गुणस्थानमें परम्परासे शुद्धोपयोगका साधक शुभोपयोग उत्तरोत्तर तारतम्य रूपसे कहा है। आगे सातवेंसे बारहवें गुणस्थान तक जघन्य, मध्यम और उत्कृष्टके भेदसे एकदेश शुद्धनय रूप शुद्धोपयोग कहा है । अतः सातवें गुणस्थानमें जघन्य वीतरागदशा है,अतः उस अवस्थामें व्यवहारको गौण करनेका उपदेश किया है। पंचमकाल में सात गुणस्थान तो हो ही सकते हैं। इसलिए पंचमकालमें भी एकदेश शुद्ध या वीतरागचारित्रके धारक मुनीश्वर हो सकते हैं । १. सुद्धचरित्ता क० ख० मु० । २. विसेसदो क. खः।
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