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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
[ गा० ३२३
विशेषार्थ--जिनागममें वस्तुस्वरूपके निरूपणको दो पद्धतियाँ हैं । उनमेंसे एकका नाम निश्चय और दूसरेका नाम व्यवहार है। निश्चय नय वस्तुके स्वाश्रित स्वरूपको कहता है और व्यवहार नय पराश्रित स्वरूपको कहता है। दूसरे शब्दोंमें निश्चयनय शुद्ध द्रव्यका निरूपक है और व्यवहार नय अशुद्ध द्रव्यका निरूपक । वस्तुमें अशुद्धता भी दो प्रकारसे होती है। एक तो विकारकृत अशुद्धता और दूसरे अखण्ड वस्तुमें भेदपरक अशुद्धता। जैसे आत्मामें रागादिजन्य अशुद्धता है वह भी व्यवहार नयका विषय है और अखण्ड आत्मामें दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपसे भेद करना भेदजन्य अशुद्धता है वह भी व्यवहार नयका विषय है। क्योंकि आत्मा तो रत्नत्रयात्मक एक अखण्ड द्रव्य है। इसीलिए समयसार गाथा ७ में कहा है कि आत्मामें दर्शनज्ञान चारित्र व्यवहारनयसे कहे जाते हैं । निश्चय नयसे तो ज्ञान भी नहीं, चारित्र भी नहीं, दर्शन भी नहीं, वह तो केवल शुद्ध ज्ञायक है। इसी गाथाकी टीकामें आचार्य अमृतचन्द्रजीने कहा है-इस शुद्ध ज्ञायक आत्मामें कर्मबन्धके निमित्तसे ही अशुद्धता नहीं आती, किन्तु ज्ञान-दर्शन-चारित्रवाला आत्मा है यह कहनेसे भी अशुद्धता आती है क्योंकि वस्तु तो अनन्तधर्मरूप एकधर्मी है। किन्तु व्यवहारी जन धर्मोको तो समझते हैं, अखण्ड एकरूप धर्मीको नहीं समझते । अतः आचार्य उन्हें समझानेके लिए धर्म और धर्मीमें स्वाभाविक अभेद होते हुए भी कथनके द्वारा भेद उत्पन्न करके व्यवहारसे हो ऐसा कहते हैं कि आत्मामें दर्शन, ज्ञान और चारित्र है। परमार्थदृष्टिसे देखा जाये तो एक द्रव्य अनन्तपर्यायोंको पिये हए होनेसे एक ही है। उस एकत्व स्वभावका अनुभवन करनेवालोंको दृष्टिमें दर्शन भी नहीं, ज्ञान भी नहीं, चारित्र भी नही, एक शुद्ध आत्मा ही है। अतः निश्चय नयसे रत्नत्रयात्मक आत्मा ही मोक्षका मार्ग है,क्योंकि दर्शन-ज्ञान और चारित्र आत्मरूप ही हैं और व्यवहारनयसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र मोक्षमार्ग है। यही बात द्रव्यसंग्रह गाथा ३९ में कही है। जैसे मोक्षमार्गका कथन दो पद्धतियों या नयोंके द्वारा दो रूपसे किया जाता है. वैसे ही रत्नत्रयके स्वरूपका कथन भी दो नयोंके द्वारा दो प्रकारसे किया जाता है उनमेंसे एकको निश्चय रत्नत्रय कहते हैं और एकको व्यवहार रत्नत्रय कहते हैं। रत्नत्रय स्वरूप आत्मामें उपचार या भेदव्यवहार नहीं करना निश्चय रत्नत्रय है अर्थात् आत्माकी श्रद्धा निश्चय सम्यग्दर्शन, आत्माका ज्ञान निश्चयसम्यग्ज्ञान और आत्मामें स्थिरता निश्चय चारित्र है|इस तरह ये तीनों आत्मस्वरूप ही हैं। इन तीनोंका ही विषय केवल एक आत्मा है । उससे भिन्न कोई अन्य वस्तु नहीं है। किन्तु तत्त्वोंकी श्रद्धा सम्यग्दर्शन, तत्त्वोंका ज्ञान सम्यग्ज्ञान और अशभ कर्मोंको त्यागकर शुभ कर्म करना सम्यक्चारित्र ये व्यवहार रत्नत्रयका स्वरूप है। व्यवहाररत्नत्रय और निश्चयरत्नत्रयमें साध्य-साधन भाव आगममें कहा है। व्यवहाररत्नत्रयके द्वारा निश्चय रत्नत्रय साधा जाता है । निश्चयकी भावनासे प्रेरित होकर जीव व्यवहाररत्नत्रयको ग्रहण करता है। इसके ग्रहण करने में स्वतः अन्तःप्रेरणा भी कारण होती है और परोपदेश भी कारण है। व्यवहारनय भेदप्रधान है अतः उसमें साध्य और साधन भिन्न होते हैं । साध्य तो पूर्ण शुद्धता रूपसे परिणत आत्मा है और साधन है - भेदरत्नत्रयरूप परावलम्बी विकल्प । क्योंकि व्यवहार सम्यग्दर्शन, व्यवहारसम्यग्ज्ञान और व्यवहार सम्यकचारित्रका विषय आत्मासे भिन्न है। व्यवहार सम्यग्दर्शनका विषय नौ पदार्थ या सात तत्त्व हैं। व्यवहार ज्ञानका विषय अंगपूर्वगत ज्ञान है और व्यवहारचारित्रका विषय शास्त्रोक्त आचार है। अतः व्यवहारी सर्वप्रथम यह भेदज्ञान करता है कि यह श्रद्धान करने योग्य है और यह श्रद्धान करने योग्य नहीं है, यह जानने योग्य है और यह जानने योग्य नहीं है, यह आचरण करने योग्य है और यह करने योग्य नहीं है। ऐसा निर्णय करनेपर जीवादि नौ पदार्थोका मिथ्यात्वके उदयमें होनेवाले मिथ्या अभिनिवेशसे रहित सम्यश्रद्धान करता है। यथा-दुःख हेयतत्त्व है। उसका कारण संसार है। संसारके कारण आस्रव और बन्ध पदार्थ हैं। उनके कारण : मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र हैं। सूख उपादेय तत्त्व है, उसका कारण मोक्ष है। मोक्षके कारण संवर और निर्जरा पदार्थ हैं। उन दोनोंके कारण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र हैं। यद्यपि शुद्ध नयसे यह जीव विशुद्ध दर्शन ज्ञान स्वभाववाला है, तथापि व्यवहारसे अनादि कर्मबन्धके वशीभूत होकर अशुद्ध परिणामको करता है । उससे पौद्गलिक कर्मका बन्ध करता है। कर्मका उदय होनेपर चारों गतियोंमें भ्रमण करता है। जन्म लेनेपर शरीर और इन्द्रियाँ होती हैं। इन्द्रिय सुखमें पड़कर राग-द्वेष करता है। राग-द्वेषरूप परिणामसे
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