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[गा०३२४
द्रव्यस्वभावप्रकाशक एवं दसणजुत्तो चरितमोहं च खविय सामग्णो। लेहदि हु सो परमप्पा वटुंतो एण' कम्मेण ॥३२४॥
इति दर्शनाधिकारः । श्रुतज्ञानपरिणतस्यात्मनः सम्यग्रूपस्य हेतुं स्वरूपं निश्चयं चाह
दंसंणकारणभूदं गाणं सम्मं खु होइ जीवस्स । तं सुयणाणं णियमा जिणवयणविणिग्गयं परमं ॥३२५॥ वत्थूण जं. सहावं जहट्टियं णयपमाण तह सिद्धं ।
तं तह व जाणणे इह सम्मं गाणं जिणा वेति ॥३२६॥ उक्तं च
संसयविमोहविब्भमविवज्जियं अप्पपरसरूवस्स । गहणं सम्मं णाणं सायारमणेयभेयं तु॥-द्रव्यसं.४२ ॥
इस क्रमसे सम्यग्दर्शनसे
का क्षय करके परमात्मपदको प्राप्त करता है ।। ३२४ ॥
दर्शनाधिकार समाप्त हुआ। आगे श्रुतज्ञान रूपसे परिणत आत्माके सम्यग्पनेका हेतु और स्वरूप तथा निश्चयका कथन करते हैं--
सम्यग्दर्शनपूर्वक जीवके जो ज्ञान होता है वह सम्यग्ज्ञान है । अथवा सम्यग्दर्शनका कारण
जीवका ज्ञान सम्यग्ज्ञान है और वह ज्ञान जिनागमसे निकला हआ नियमसे उत्तम श्रुतज्ञान है ॥ ३२५ ॥
विशेषार्थ-जब तक जीवको सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं होती, तब तक उसका ज्ञान सच्चा नहीं होता । ज्ञानके सम्यक्त्वका कारण सम्यग्दर्शन ही है। इसके अनुसार मिथ्याज्ञानपूर्वक ही सम्यग्दर्शन होता है। क्योंकि सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके लिए सात तत्त्वोंका यथार्थज्ञान होना आवश्यक है,उसके बिना सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता । अत: जिनागमका स्वतः अवगाहन करके या परोपदेशसे होनेवाला श्रुतज्ञान ही सम्यग्दर्शनका कारणभूत है। अधिगमज सम्यग्दर्शन तो श्रुतज्ञानपूर्वक ही होता है और निसर्गज सम्यग्दर्शनमें भी परम्परासे श्रुतज्ञान कारण होता है। इस तरह जो श्रुतज्ञान सम्यग्दर्शनका कारण है वह वास्तवमें यद्यपि सम्यग्ज्ञान नहीं है क्योंकि सम्यग्दर्शनके बिना ज्ञान सच्चा नहीं होता। तथापि चूंकि वह श्रुतज्ञान सम्यग्दर्शनका कारण है. इसलिए उसे उपचारसे ही सच्चा ज्ञान कहा गया है।
आगे सम्यग्ज्ञानका स्वरूप कहते हैं--
वस्तुका जो यथावस्थित स्वभाव नय और प्रमाणके द्वारा सिद्ध है , उसको वैसा ही जानना सम्यग्ज्ञान है,ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते हैं ।। ३२६ ।।
द्रव्यसंग्रहमें कहा भी है
आत्माके और अन्य वस्तुओंके स्वरूपको संशय, विपर्यय और अनध्यवसायसे रहित जानना सम्यग्ज्ञान है । वह ज्ञान साकार होता है और उसके अनेक भेद हैं।
१. सामण्णं अ० क० । सामण्णे ख. ज. मु०। २. भवदि हु. मु० । ३. अनेन क्रमेण वर्तमानः इत्यर्थः । एण मग्गेण अ. क. ख० ज० मु.। ४. 'जीवादिसदहणं सम्मत्तं रूवमप्पणो तं तु । दुरभिणिवेसविमुक्क णाणं सम्म खु होदि सदि जम्हि ॥४१॥-द्रव्यसंग्रह । ५. जाणणो अ० क० ख० ज. मु० ।
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