Book Title: Naychakko
Author(s): Mailldhaval, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 211
________________ -३२३ ] नयचक्र १६१ पुनः कर्मबन्ध होता है। इस तरह रागादि परिणामोंका और कर्मका परस्परमें जो कार्यकारणभाव है.वही पुण्य, पाप आदिका कारण है। ऐसा जानकर उक्त संसारचक्रका विनाश करनेके लिए अव्याबाध सूख आदि गुणोंके समूह रूप अपने आत्मस्वरूपमें रागादिविकल्प दूर करके भावना करनी चाहिए। इस प्रकारका श्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मतत्त्वके विनिश्चयका बीज है। उसके होनेपर जो सम्यक ज्ञान होता है.वही ज्ञान चेतना प्रधान आत्मतत्त्वकी उपलब्धिका बीज है। इन सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके होनेपर समस्त अमार्गोसे छुटकर इन्द्रिय और मनके विषयभूत पदार्थोंमें रागद्वेषपूर्वक विकारका अभाव होनेसे जो निर्विकार ज्ञानस्वभावरूप समभाव होता है,वही सम्यक्चारित्र है । आशय यह है कि मिथ्यात्व आदि सात कर्मप्रकृतियोंका उपशम, क्षय या क्षयोपशमके होनेके साथ अपनी शुद्धात्माके अभिमुख परिणामके होनेपर, शुद्ध आत्मभावनासे उत्पन्न निर्विकार वास्तविक सुखको उपादेय मानकर संसार,शरीर और भोगोंमें जो हेयबुद्धि होती है वह चतुर्थगुणस्थानवर्ती व्रतरहित सम्यग्दृष्टिकी अवस्था है । तथा अप्रत्याख्यानावरण कषायका क्षयोपशम होनेपर जो यथाशक्ति त्रसवधसे निवृत्ति होती है वह पंचमगुण स्थानवर्ती श्रावककी अवस्था है। आगे ज्यों-ज्यों रागादिका क्षयोपशम होनेपर शद्धात्माको अनुभति बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों बाह्य त्याग भी बढ़ता जाता है। यहाँ जो बाह्यमें पंचेन्द्रियके विषयोंका त्याग है वह व्यवहारनयसे चारित्र कहा जाता है और जो अभ्यन्तरमें रागादिका अभाव है वह निश्चयसे चारित्र है। सारांश यह है कि वीतराग सर्वज्ञ प्रणीत जीवादि पदार्थोका सम्यक श्रद्धान और सम्यग्ज्ञान तो गृहस्थों और साधुओंका समान आचार है। जो साधु होते हैं वे तो आचार शास्त्रमें विहितप्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानके योग्य पांच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, षडावश्यक आदिका पालन करते हैं और जो गहस्थ होते हैं वे उपासकाचारमें विहित पंचम गुणस्थानके योग्य दान, शील, व्रत, पूजा, उपवास आदि करते हैं जो व्यवहार मोक्षमार्ग है । इस व्यवहार मोक्षमार्गको करते हए जब जितने काल तक आत्मा विशिष्ट शुद्धभावनावश स्वभावभूत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रके साथ एकीभूत होकर त्याग और उपादानके विकल्पसे शून्य होकर निश्चल हो जाता है,उतने काल तक चूँकि वह आत्मा जीवस्वभावमें नियत चारित्ररूप हो जाता है, अतः वह निश्चयसे मोक्षमार्ग है। इस प्रकार निश्चय और व्यवहारमें साध्यसाधन भाव होता है । यहाँ यह ध्यानमें रखना चाहिए कि पूर्व शुद्धताके आश्रित जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकुचारित्र है वे ही मोक्षके कारण हैं और पराश्रित होनेपर वे बन्धके कारण हैं। यह बात 'पंचास्तिकाय गाथा १६४ में कही है । जैसे घी यद्यपि स्वभावसे शीतल होता है, किन्तु अग्निके संसर्गसे वही दाहक हो जाता है। उसी तरह यद्यपि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मुक्तिके कारण हैं,तथापि पंचपरमेष्ठी आदि प्रशस्त द्रव्योंके संसर्गसे वे साक्षात् पुण्यबन्धके कारण होते हैं और मिथ्यात्व तथा विषयकषायमें निमित्तभूत परद्रव्योंके आश्रित होनेपर पापबन्धके कारण होते हैं, इसीसे उन्हें मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र कहते हैं । अतः पंचपरमेष्ठीको भक्ति आदिसे मोक्ष माननेवाला भी जीव परसमयरत कहा गया है। किन्तु जो पुरुष निर्विकारशद्धात्म भावना रूप परम उपेक्षा संयममें स्थिर होना चाहता है और उसमें असमर्थ होनेपर काम, क्रोधादिरूप अशद्ध परिणामोंसे बचने के लिए पंचपरमेष्ठी आदिकी भक्ति करता है, वह उस समय सूक्ष्मपरसमय प्रवृत्त होने से सराग सम्यग्दृष्टि होता है। यदि वह शुद्धात्मभावनामें समर्थ होनेपर भी उसे छोड़कर ऐसा मानता है कि शुभोपयोगसे ही मोक्ष होता है तब वह स्थूल परसमय रूप परिणामसे अज्ञानी मिथ्यादृष्टि होता है। अतः भव्यजीव मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियोंके और यथासम्भव चारित्रमोहनीयका उपशम-क्षय-क्षयोपशम होनेपर यद्यपि अपने गुणस्थानके अनुसार हेयबुद्धिसे विषय सुखको भोगता है,तथापि निज शद्धात्मभावनासे उत्पन्न अतीन्द्रिय सुखको ही उपादेय मानता है। उसकी यह भावना ही उसे व्यवहारसे निश्चयकी ओर ले जाती है। और इस तरह निश्चय और व्यवहारमें साध्य-साधन भाव बनता है । इसके विषयमें स्वर्ण और स्वर्णपाषाणका दृष्टान्त दिया है । जिस पाषाणमें स्वर्ण होता है उसे स्वर्णपाषाण कहते हैं। जिस प्रकार व्यवहारनयसे स्वर्णपाषाण स्वर्णका साधन है उसी प्रकार व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चयमोक्ष मार्गका साधन है अर्थात व्यवहार नयसे भावलिंगी मुनिको सविकल्प दशामें वर्तते हुए तत्त्वार्थश्रद्धान, तत्त्वार्थज्ञान और महाव्रतादिरूपचारित्र निर्विकल्पदशामें वर्तते हुए शुद्धात्मश्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठानके साधन हैं। २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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