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नयचक्र
बहिरंत परमतच्च णच्चा णाणं खु जं ठियं णाणे | तं इह णिच्छयणाणं पुवं तं मुणह ववहारं ॥ ३२७॥ अतिव्याप्तिमव्याप्तिं श्रुताध्ययने स्वार्थिनां निषेधयति -
ता सुसार महणं कीर सुपमाणमेरुमहणेण । सियrयफणिदंगहिए जाव ण मुणिओ हु वत्थुसभाओ ॥ ३२८ ॥
इति ज्ञानाधिकारः ।
विशेषार्थ - 'यह सीप है या चाँदी' इस प्रकारके अनिश्चयात्मक ज्ञानको संशय कहते हैं । सीपको चाँदी समझ लेना विपर्यय या विभ्रमज्ञान है । और चलते हुए मार्गमें जो तृण आदिका स्पर्श होने पर स्पष्ट ज्ञान नहीं होता कि क्या है उसे अनध्यवसाय या विमोह कहते हैं । इन तीन मिथ्याज्ञानोंसे रहित जो ज्ञान होता है वह लौकिक सम्यग्ज्ञान है । किन्तु सहज शुद्ध केवलज्ञान और केवलदर्शन स्वभाव आत्माके स्वरूप को तथा जीव सम्बन्धी भावकर्म, नोकर्मरूप परद्रव्यको और पुद्गल आदि शेष सब द्रव्योंको नय-प्रमाणके द्वारा जैसा स्वरूप प्रतीत हो, वैसा ही ठीक-ठीक जानना वस्तुतः सम्यग्ज्ञान है । शास्त्रोंमें नय- विवक्षासे वस्तुओंका कथन किया है। यदि नयविवक्षाका ज्ञान न हो तो उसमें परस्पर विरोध - सा प्रतीत होता है, अतः जहाँ जो कथन जिस अपेक्षासे किया गया है, उसको उसी विवक्षासे ठीक-ठीक जानना ही सम्यग्ज्ञान है । जैसे आगम पृथिवी आदिके भेदसे जीवके छह प्रकार तथा इन्द्रियोंके भेदसे एकेन्द्रिय आदि पाँच भेद बतलाये हैं, किन्तु निश्चयसे इन्द्रियाँ और पृथिवीकाय आदि जीवके स्वरूप नहीं हैं । अतः व्यवहारनयसे ही पृथिवी आदिषट्काको जीव कहा है, निश्चयसे तो जीव अतीन्द्रिय, अमूर्त और केवल ज्ञानादि गुणोंका पिण्डरूप है । इसी तरह जीवको कर्मोंका कर्ता और भोक्ता कहा है, यह कथन भी व्यवहारनयसे है । निश्चयनयसे तो जीव अपने केवलज्ञानादिरूप शुद्ध भावोंका ही कर्ता और भोक्ता है । अतः गुणस्थान, मार्गणास्थान, जीवसमास आदिके भेदोंके द्वारा तथा कर्मजन्य भेदोंके द्वारा संसारी जीवका जितना भी कथन है, वह सब व्यवहारनयसे है । इस नयविवक्षाको जाननेसे ही जीवादि पदार्थोंका यथार्थ ज्ञान होता है। अतः सम्यग्ज्ञानके लिए नयप्रमाणादिका स्वरूप भी जानना आवश्यक है । आगे निश्चयज्ञानका स्वरूप कहते हैं
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बाह्य और अन्तः परमतत्त्वको जानकर ज्ञानका ज्ञानमें ही स्थिर होनेको यहाँ निश्चयज्ञान कहा है । और पहले जो ज्ञानका कथन किया है उसे व्यवहारज्ञान जानो ॥ ३२७ ॥
विशेषार्थ - पहले कहा है कि पराश्रित कथन व्यवहार और स्वाश्रित कथन निश्चय है। ज्ञान अपनेको भी जानता है और परको भी जानता है । बाह्य ज्ञयकी अपेक्षा घटज्ञान, पटज्ञान आदि सब व्यवहार - ज्ञान हैं । मति श्रुत, अवधि आदि भेद भी व्यवहारज्ञानके ही हैं, क्योंकि ये भेद परसापेक्ष्य । जो ज्ञान इन्द्रिय और मनकी सहायतासे होता है उसे मतिज्ञान कहते हैं । मतिज्ञानपूर्वक होनेवाले विशेष ज्ञानको श्रुतज्ञान कहते हैं । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी अवधिको लिये हुए रूपादि पदार्थोंके एक देश स्पष्ट ज्ञानको अवधिज्ञान कहते हैं । मनमें स्थित रूपी पदार्थोंके एक देश स्पष्ट ज्ञानको मन:पर्यय ज्ञान कहते हैं । केवलज्ञानका फल उपेक्षा है । सबको जानकर भी वह स्वस्थ ही रहता है । व्यवहारनयसे केवलज्ञान परको जानता है, निश्चयन्यसे अपने को ही जानता है । अतः परिपूर्णज्ञान ही निश्चयज्ञान है ।
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आगे आत्मार्थी पुरुषोंके लिए श्रुतके अध्ययन में अव्याप्ति और अतिव्याप्तिका निषेध करते हैं--- स्याद्वादनयरूपी नागराजसे गृहीत प्रमाणरूपी मेरुमथानीके द्वारा तब तक श्रुतरूपी सागर का मन्थन करो, जब तक वस्तुके स्वरूपका ज्ञान न होवे ॥ ३२८ ॥
१. गाणं मु० । २. पुव्वृत्तं मु० अ० क० ख० ज० मु० । ३. कीरइ ज० ।
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