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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
[गा० ३१८
जिणसत्थादो अत्थे पच्चक्खादीहि बुज्झदो णियमा ।
खीयदि मोहोवचयो तह्मा सत्थं समधिदव्वं ।।-प्रवचनसार ८६ । क्षपितमोहस्य दर्शनलामभेदं स्वरूपं चाह
एवं उवसम मिस्सं खाइयसम्मं च के वि गिण्हंति। तिण्णिवि णएण तियहा णिच्छय सन्भूअ तह असन्भूओ ॥३१८॥ सेण्णाइभेयभिण्णं जीवादो णाणदंसणचरितं । सो सबभूवो भणिओ पुव्वं चिय जाण ववहारो ॥३१९॥ णेयं खु जत्थ णाणं सद्धेयं जत्थ दसणं भणियं । चरियं खलु चारित्तं णायव्वं त असम्भूमं ॥३२०॥
वीतराग सर्वज्ञ जिनेन्द्र देवके द्वारा उपदिष्ट शास्त्रोंसे प्रत्यक्षादि प्रमाणोंके द्वारा पदार्थोंको जाननेवाले पुरुषका मोह समूह नियमसे नष्ट हो जाता है,अतः शास्त्रोंका अच्छी तरह अध्ययन करना चाहिए ।
आगे मोहका क्षय होने पर सम्यग्दर्शनके लाभके भेद और स्वरूपको कहते हैं
इस प्रकार कुछ जीव उपशम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व या क्षायोपशमिक सम्यक्त्वको ग्रहण करते हैं। वह सम्यक्त्व निश्चयनय, सद्भूत व्यवहारनय और असद्भूत व्यवहारनयकी अपेक्षा तीन प्रकार है ।।३१८॥
विशेषार्थ-सम्यग्दर्शनके तीन भेद हैं-औपशमिक सम्यग्दर्शन, क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन और क्षायिक सम्यग्दर्शन । मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभके उपशमसे प्राप्त होनेवाले सम्यग्दर्शनको औपशमिक सम्यग्दर्शन कहते हैं। इन्हीं सात प्रकृतियोंके क्षयसे प्रकट होने वाले सम्यग्दर्शनको क्षायिक सम्यग्दर्शन कहते हैं । अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व और सम्यकमिथ्यात्वके वर्तमान सर्वघाती स्पर्द्धकोंका उदयाभाविक्षय, आगामीकालमें उदय आनेवाली निषेकोंका सदवस्थारूप उपशम तथा देशघाति सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयमें होनेवाले तत्त्वार्थ श्रद्धानको क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन कहते हैं । इस तरहसे सम्यक्त्वके ये तीन भेद होते हैं। आगे ग्रन्थकार नयदृष्टिसे सम्यक्त्वके तीन प्रकारोंका कथन करते हैं । वे तीन नय है - निश्चयनय, सद्भूत व्यवहारनय और असद्भूत व्यवहारनय । इन तीनों नयोंका स्वरूप पहले कह आये हैं।
जीवसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र नामादिके भेद होनेसे भिन्न है,ऐसा कथन करनेवाला सद्भूत व्यवहारनय जानना चाहिए ॥३१९।। और जिसमें ज्ञेयको ज्ञान, श्रद्धेयको
यग्दर्शन और आचरणीयको चारित्र कहा जाये, उसे असद्भूत व्यवहारनय जानना चाहिए ॥३२०॥
विशेषार्थ--गुण और गुणी वस्तुतः अभिन्न हैं । गुणीसे भिन्न गुणका और गुणसे भिन्न गुणो कोई अस्तित्व नहीं है । गुणोंके समुदायको ही द्रव्य कहते हैं। ऐसी एक अखण्ड वस्तुमें भेद करने वाला सद्भूत व्यवहारनय है। जैसे व्यवहारीजनोंको समझानेके लिए कहा जाता है कि आत्मामें दर्शन, ज्ञान और चारित्र है । धर्म और धर्मी या गुण और गुणीमें स्वभावसे तो अभेद ही है,फिर भी नामादिके भेदसे भेद मानकर इस प्रकारका व्यवहार किया जाता है । इस तरह भेदमूलक आत्माका श्रद्धान सद्भूतव्यवहारनयसे सम्यग्दर्शन
१. णएण विहियाणि-अ० क० ख० मु०। २. गुणगुणिनोः संज्ञादिभेदात् भेदकः सद्भूतव्यवहारः ।
-आलाप० । 'ववहारेणुवदिस्सइ गाणिस्स चरितदंसणं णाणं ।'-समयसार गा०७। ३. अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्यान्यत्र समारोपणमसद्भूतव्यवहारः ।-अलाप० ।
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