________________
-३१७]
नयचक्र
१५७
तित्थयरकेवलिसमणभवसुमरणसत्यदेवमहिमादी। इच्चेवमाइ बहुगा बाहिरहेऊ मुणेयव्वा ॥३१६॥ आसण्णभव्वजीवो अणंतगुणसेढिसुद्धिसंपण्णो । बुझतो खलु अढे खवदि स 'मोहं पमाणणयजोए ॥३१७॥
आगे सम्यक्त्वको उत्पत्तिके बाह्य साधनोंको कहते हैं
तीर्थकर, केवली, श्रमण, पूर्वजन्मका स्मरण, शास्त्र, देव, महिमा आदि बहुतसे बाह्य हेतु जानना चाहिए ॥३१६॥
नरक गतिमें प्रथम तीन नरकोंमें जातिस्मरण, धर्मश्रवण और वेदनाभिभव ये तीन बाह्य कारण हैं। नोचेके चार नरकोंमें जातिस्मरण और वेदनाभिभव दो ही बाह्य कारण हैं, क्योंकि धम उत्पन्न कराने में प्रवृत्त सम्यग्दष्टि देवोंका गमन तीसरे नरकसे आगे सम्भव नहीं है। तियंचों तथा मनुष्याम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके बाह्य कारण तीन हैं-पर्वजन्मका स्मरण. धर्मश्रवण और जिनबिम्ब-दर्शन । जिन बिम्बदर्शनमें ही तीर्थंकर, केवलि और श्रमणोंका समावेश हो जाता है। देवगतिमें सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके बाह्य कारण चार हैं-जातिस्मरण, धर्मश्रवण, जिनमहिमा-दर्शन और देवद्धिदर्शन। १३३, १४, १५वें और १६वं स्वर्गामें सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके तीन बाह्य कारण है-जातिस्मरण, धर्मश्रवण और जिनमहिमादशन । देवद्धिदर्शन यहाँ निमित नहीं है. क्योंकि महधिसे युक्त ऊपरके देव तो नीचे आते नहीं हैं और उन्हीं कल्पोंके देवोंकी महर्द्धिका दर्शन देवोंमें न तो विस्मय पैदा करता है और न संक्लेश, क्योंकि इनके शुक्ललेश्या होती है । नौग्रेवेयकवासी देवोंमें सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके बाह्य निमित्त दो हैं-जातिस्मरण और धर्मश्रवण । वहाँ जिनमहिमादर्शन भी नहीं है, क्योंकि ये देव महोत्सव देखने नहीं जाते । तथा धर्मश्रवण परस्परके संलापसे ही सम्भव है । अनुदिश और अनुत्तरवासी देव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं ।
जो निकट भव्य जीव अनन्तगुणश्रेणि निर्जरासे सम्पन्न होता है और प्रमाण-नयकी योजना के द्वारा तत्त्वार्थको जानता है, वही मोहका क्षय करता है ॥३१७॥
विशेषार्थ-जिसमें सम्यग्दर्शन आदिके प्रकट होनेकी योग्यता है उसे भव्य कहते हैं । और जो थोड़े हो भवोंको धारण करके मुक्तिको प्राप्त होगा उसे निकट भव्य कहते हैं। जब जीवके संसार परिभ्रमणका काल अर्धपुद्गलपरावर्तन प्रमाण शेष रहता है.तब वह प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहण करनेका पात्र होता है। ऐसा जोव जब सम्यक्त्व ग्रहणके उन्मख होता है.तब उसके प्रति समय अनन्तगणी कर्म निर्जरा होती है । ऐसा जीव प्रमाण और नयके द्वारा तत्त्वार्थको जानता है। तत्त्वार्थका ज्ञान हए बिना उनका सम्यक् श्रद्धान सम्भव नहीं है और तत्त्वार्थका ज्ञानमूलक श्रद्धान हुए बिना मोहनीय कर्मका मोह ही है। इसी मोहवश जीव अपने स्वरूपको न जानकर पर में आत्मबुद्धि करता है । वह शरीरको ही आप मानता है, शरीरके नाशके साथ अपना नाश और शरीरके जन्मके साथ अपना जन्म मानता है। 'शरीरसे भिन्न मैं एक स्वतन्त्र नित्य अविनाशी द्रव्य हैं और ज्ञानादि मेरे गुण हैं' ऐसा उसे बोध ही नहीं है । वह मानता है कि मैं दूसरोंका इष्ट, अनिष्ट कर सकता हूँ या दूसरे मेरा इष्ट, अनिष्ट कर सकते हैं । ऐसा मानकर किसीमें इष्ट बुद्धि करता है और किसीमें अनिष्ट बुद्धि करता है। जिसमें इष्ट बुद्धि करता है उससे राग करता है और जिसमें अनिष्ट द्धि करता है उससे द्वेष करता है। इस तरह उसका यह अज्ञानमूलक मिथ्याभाव तत्त्वोंके यथार्थ ज्ञान हुए बिना मिटना सम्भव नहीं है और उसके मिटे विना मोहका क्षय होना सम्भव नहीं है । अतः तत्त्वज्ञान की प्राप्तिका प्रयत्न करना चाहिए। यही आचार्य कुन्दकुन्दने प्रवचनसारमें कहा है
१. मोही ज०।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org