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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
[ गा० ३१४लभ्रूण दुविहहेउ जीवो मोहं खवेइ णियमेण । अब्भंतरबहिरेयं जह तह व सुणह वॉच्छामि ॥३१४॥ काऊण करणलद्धी' सम्मगभावस्स कुणइ जं गहणं ।
उवसमखयमिस्सादो पयडीणं तं पिणियहेडं ॥३१५॥ पालनके साधन नहीं है वे साधनाभावसे दुःखी हैं । जिनके पास सन्तान है और धनादि भी है वे अपनी तृष्णा के कारण दुःखी हैं । इस तरह संसारमें धनी और निर्धन दोनों ही दु:खी हैं। विषयोंमें जो सुख माना जाता है वह विषयसुख भी वस्तुतः दुःख ही है, क्योंकि विषयसुखकी तृष्णा ही मनुष्यको बेचन रखती है। उसीकी पूर्तिमें मनुष्यका समस्त जीवन बीत जाता है, मगर जैसे ईंधनसे आगकी तृप्ति नहीं होती वह और भी भड़क उठती है.वैसे ही विषयोंकी चाह विषयोंकी प्राप्ति से नहीं बझती.वह और भी बढ़ती जाती है। अतः संसारमें केवल दुःख है और उसका कारण है-पूर्व जन्ममें संचित कर्म । उन कर्मोके ही कारण जीवको नया शरीर धारण करना पड़ता है। शरीरमें इन्द्रियाँ होती हैं, उन इन्द्रियोंसे विषयोंकी चाह होती है, विषयासक्तिसे पुनः नवीन कर्मबन्ध होता है । उससे पुनः जन्म धारण करना पड़ता है, इस तरह यह प्रक्रिया तब तक चलती है जब तक कर्मबन्धके कारणोंको दूर नहीं किया जाता। अतः कर्मबन्धके कारणोंको हटाना ही आवश्यक है। उसके कारण मिथ्यात्व आदि पहले बतलाये हैं ।
आभ्यन्तर और बाह्य रूपसे दोनों प्रकारके कारणोंको प्राप्त करके जीव जिस प्रकारसे मोहनीय कर्मका नियमसे क्षय करता है उसे सुनें, मैं कहता हूँ॥३१४॥
कर्म प्रकृतियोंके उपशम,क्षय या क्षयोपशमके कारण लब्धिको करके जीव जो सम्यक्त्व भावको या आत्म स्वभावको ग्रहण करता है वह आभ्यन्तर हेतू है ॥३१५॥
विशेषार्थ-मोहनीय कर्मके भेद दर्शन मोहनीय कर्मका उपशम,क्षय या क्षयोपशम हए बिना सम क्त्वकी प्राप्ति नहीं हो सकती और सम्यक्त्वकी प्राप्ति हुए बिना कर्मबन्धके कारणोंका विनाश सम्भव नहीं है। अतः सर्वप्रथम सम्यक्त्वकी प्राप्तिके लिए ही प्रयत्नशील होना चाहिए। सम्यक्त्वकी प्राप्तिका अन्तरंग कारण करणलब्धि है । लब्धियाँ पाँच हैं-क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि, प्रायोग्यलब्धि और करणलब्धि । इनमेंसे प्रारम्भकी चार लब्धियां तो सामान्य हैं । उनके होने पर भी सम्यक्त्वकी प्राप्ति तब तक नहीं हो सकती, जब तक करणलब्धि न हो। इसके होने पर सम्यक्त्वकी प्राप्ति अवश्य होती है।
पूर्व संचित कर्ममल रूपी पटलकी शक्ति ( अनुभाग स्पर्धक ) जिस समय प्रति समय अनन्त गुणहीन होते हुए उदीरणाको प्राप्त होती है, उस समय क्षयोपशमलब्धि होती है। क्षयोपशमलब्धिसे जीवका जो भाव सातावेदनीय आदि शुभ कर्मोके बन्धमें निमित्तभूत होता है उसे विशुद्धि कहते हैं और उसकी प्राप्तिको विशुद्धिलब्धि कहते हैं। छह द्रव्यों और नौ पदार्थोके उपदेश देनेवाले आचार्यकी प्राप्तिको तथा उपदिष्ट । ग्रहण, धारण और विचारनेको शक्तिकी प्राप्तिको देशनालब्धि कहते हैं। सब कर्मोकी उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभागका घात करके अन्तःकोडाकोडीकी स्थितिमें स्थापित करनेको प्रायोग्यलब्धि कहते हैं। और अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण रूप परिणामोंको करणलब्धि कहते हैं। उसके अन्तिम समयमें सम्यक्त्व की उत्पत्ति होती है। सम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाला जीव पंचेन्द्रिय ही होता है तथा संज्ञो हो होता है। क्योंकि असंज्ञी जीवोंमें मनके बिना विशिष्ट ज्ञानकी उत्पत्ति नहीं होती। सबसे प्रथम जीवको जो सम्यक्त्व प्राप्त होता है उसका नाम प्रथमोपशम सम्यक्त्व है। प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाला जीव मिथ्यादृष्टि ही होता है तथा पर्याप्तक ही होता है । तथा वह देव, नारकी, तिर्यच अथवा मनुष्य होता है, चारों गतियोंमें इस सम्यक्त्वकी उत्पत्ति हो सकती है। तथा प्रथमोपशम सम्यक्त्व उत्पन्न होनेके समय अनाकार उपयोग नहीं होता, अतः मतिश्रुत ज्ञानरूप साकार उपयोग होना चाहिए और भव्य होना चाहिए। १. द्धी अप्पसहावस्स अ० क० ख० । 'चदुगदि भन्वो सण्णी । पज्जत्तो सुज्झगो य सागारो। जागारो सल्लेस्सो सलद्धिगो सम्ममुवगमइ ॥६५१।।-गो. जीवकाण्ड ।
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