________________
-५२]
नयचक्र सर्वमेकब्रह्मस्वभावात्मकमिति पक्षे दूषणमाह
'जइ सव्वं बंभमयं तो किह विविहसहावगं दन्वं । एक्कविणासे णासइ सुहासुहं सव्वलोयाणं ॥५२॥
उसे व्यक्त करता है उसे ही आविर्भाव कहते हैं। इसी तरह मुद्गरसे घटके फूट जानेपर घटका विनाश नहीं होता उसका तिरोभाव हो जाता है। इसीसे सब सर्वत्र विद्यमान है ऐसा उसका सिद्धान्त है। उसके विरोधमें जैनोंका कहना है कि ऐसा माननेपर तो कोई किसीका कार्य और कोई किसीका कारण ही नहीं बनेगा क्योंकि यदि दूधरूप कारणमें दही आदि कार्य सर्वथा विद्यमान हैं तो उसको उत्पत्तिके लिए कारणोंकी क्या आवश्यकता है वह तो पहलेसे ही विद्यमान है। अतः जो सब रूपसे सत् है वह किसीसे
होता, जैसे प्रधान और आत्मा । सांख्यमतमें दधि आदि सर्वरूपसे सत हैं अतः वे कार्य नहीं हो सकते। तथा दूध उनका कारण नहीं हो सकता; क्योंकि दही उसका कार्य नहीं है। तथा जब दूध अवस्थामें भी उसमें दही वर्तमान है तो जिस समय वह दूध रूपमें है उस समय भी उसमें दहीकी उपलब्धि होना चाहिए। तथा जब दही दूधमें विद्यमान है तो दहीकी उत्पत्तिके लिए कारणोंका व्यापार उसे जमाना मथना आदि व्यर्थ है। यदि कहोगे कि कारणोंके व्यापारसे दहीकी अभिव्यक्ति ( प्रकटपना ) होती है तो अभिव्यक्ति पहले है या नहीं ? यदि 'है' तो उसके करने की क्या आवश्यकता है। यदि नहीं है तो गधेकी सींगोंकी तरह उसे किया नहीं जा सकता। क्योंकि सांख्य ऐसा मानते हैं कि जो असत् है उसे नहीं किया जा सकता। तथा ज्ञान और ज्ञेय यदि तिरोहित है-अप्रकट हैं तो उन्हें जानना शक्य नहीं है। यदि वे प्रकट हैं तो सर्वत्र सब वस्तुओंका ज्ञान होना चाहिए क्योंकि सब सब जगह विद्यमान है । अतः सांख्यकी मान्यता सदोष है।
'सब जड़ चेतन एक ब्रह्मस्वरूप ही है' इस मतमें दूषण देते हैं
यदि सब ब्रह्ममय हैं तो नाना स्वभाववाले द्रव्य कैसे हैं ? तथा एकके नष्ट होनेपर सब लोकोंका शुभाशुभ नष्ट हो जाना चाहिए ॥५२॥
विशेषार्थ-ब्रह्मवादियोंका मत है कि यह सब जो कुछ संसार है यह सब ब्रह्म है इसमें भेद नहीं है। जड़ और चेतन ब्रह्मकी ही पर्याय हैं। जैसे एक सुवर्णके कटक केयूर हार आदि नाना परिणाम होते है वैसे ही ब्रह्मके भी नाना परिणाम होते हैं। यद्यपि उन नाना परिणामोंमें देश-भेद, काल-भेद और शक्तिभेद पाया जाता है फिर भी उनके एक होने में कोई विरोध नहीं है। जैसे मकड़ी स्वभावसे ही जाला बुनती है वैसे ही ब्रह्म स्वभावसे हो जगतका निर्माण करता है। इसके विरोधमें जैनोंका कहना है कि जब ब्रह्म नित्य और एकरूप है तो उसमें परिणमन ही संभव नहीं है। यदि कहोगे कि सहकारी कारणोंके वशसे ब्रह्म में परिणाम होता है तो अद्वैतके स्थान में बैतकी आपत्ति आती है। सुवर्ण वगैरह अनेक स्वभाववाले होते है तभी उनके नाना परिणाम देखे जाते हैं यदि वह सर्वथा एक स्वभाववाला हो तो उसके नाना परिणाम संभव नहीं हो सकते। किन्तु आप तो ब्रह्मको एक स्वभाव मानते हैं उससे जड़ और चेतनकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है। इसके सिवाय अद्वैतवादमें क्रियाकारकका भेद सम्भव नहीं है किन्तु कर्ता करण स्थान गमन आदि रूप क्रिया प्रत्यक्षसे देखी जाती है। कर्ता क्रिया कर्म आदिके अभावमें अकेला ब्रह्म स्वयं ही स्वयंमें तो पैदा हो नहीं सकता। फिर लोकमें पुण्य पाप कर्मका भेद; शुभ-अशुभ फलका भेद, इस लोक परलोकका भेद भी तो देखा जाता है। अद्वैतवादमें यह कैसे संभव है ? और यदि संभव है तो अद्वैतवादके स्थानमें द्वैतवाद ही सिद्ध होता है ।
१. अद्वैतैकान्तपक्षेऽपि दृष्टो भेदो विरुध्यते । कारकाणां क्रियायाश्च नै स्वस्मात् प्रजायते ॥२४॥-आ०मी०।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org