________________
५०
द्रव्यस्वभावप्रकाशक
Jain Education International
होती है, वह रति कर्म है । जिस कर्मके उदयसे जीवोंकी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावमें अरति उत्पन्न होती है, वह अरति कर्म है । जिस कर्मके उदयसे जीवोंको शोक उत्पन्न होता है, वह शोक कर्म है । जिस कर्मके उदयसे जीवके सात प्रकारका भय उत्पन्न होता है, वह भय कर्म है । जिस कर्मके उदयसे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में ग्लानि उत्पन्न होती है, वह जुगुप्सा कर्म है। इस तरह नोकषाय वेदनीयकी नो प्रकृतियाँ हैं । आयुकर्मकी चार प्रकृतियाँ हैं—- नरकायु, तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायु । जो कर्म नरक भवको धारण कराता है, वह नरकाकर्म है। जो कर्म तिर्यञ्च भवको धारण कराता है, वह तिर्यञ्चायु कर्म है । जो कर्म मनुष्य भवको धारण कराता है, वह मनुष्यायुकर्म है । जो कर्म देव भव को धारण कराता है, वह देवायु कर्म है । इस प्रकार आयु कर्मकी चार ही उत्तर प्रकृतियाँ हैं । नाम कर्मको ९३ प्रकृतियाँ हैं । जो नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवपर्यायका बनानेवाला कर्म है, वह गतिनाम कर्म है । वह गतिनाम कर्म चार प्रकारका हैनरकगति नाम कर्म, तिर्यञ्चगति नाम कर्म, मनुष्यगतिनामकर्म, देवगतिनामकर्म । जो कर्म एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रियभावका बनानेवाला है, वह जादिनामकर्म है । वह पाँच प्रकारका हैएकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति और पञ्चेन्द्रियजाति नामकर्म । जिस कर्मके उदयसे औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण शरीरके परमाणु जीवके साथ बन्धको प्राप्त होते हैं, वह शरीरमा कर्म है । वह पाँच प्रकारका है - औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, आहारक शरीर, तेजस शरीर और कार्मण शरीर नामकर्म । जिस कर्मके उदयसे परस्पर सम्बन्धको प्राप्त हुई वर्गणाओंका परस्पर सम्बन्ध होता है, वह शरीरबन्धन नामकर्म है । वह भी पाँच प्रकारका है - औदारिकशरीर बन्धन, वैक्रयिक शरीर बन्धन, आहारक शरीर बन्धन, तैजस शरीरबन्धन और कार्मण शरीर बन्धन | जिस कर्मके उदयसे परस्पर सम्बन्धको प्राप्त हुई वर्गणाओंमें चिक्कणता उत्पन्न हो वह शरीर संघात नाम कर्म है । उसके भी पांच भेद हैं- औदारिक शरीर संघात, वैक्रियिक शरीर संघात, आहारकशरीर संधात, तैजसशरीर संघात और कार्मणशरीर संघातनामकर्म । जिस कर्मके उदयसे शरीरोंकी आकार रचना होती है उसे संस्थान नामकर्म कहते हैं । वह छह प्रकारका है - समचतुरस्र शरीर संस्थान, न्यग्रोधपरिमण्डल शरीर संस्थान, स्वाति शरीरसंस्थान, कुब्जशरीर संस्थान, वामन शरीरसंस्थान और हुण्ड शरीरसंस्थान नाम कर्म । समचतुरस्र अर्थात् समान मान और उन्मानवाला शरीरसंस्थान जिस कर्मके उदयसे बनता है, वह समचतुरस्र शरीरसंस्थान नाम कर्म है । जिस शरीरका परिमण्डल न्यग्रोध अर्थात् वटवृक्षके परिमण्डल के समान होता है, वह न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान है। उसका निवर्तक नामकर्म उसी संज्ञावाला है । अर्थात् इस संस्थान वाला शरीर नीचे सूक्ष्म, ऊपर विशाल होता है । स्वाति वामीको कहते हैं । स्वातिके समान आकारवाला शरीर जिस कर्मके उदयसे बनता है, वह स्वाति शरीर संस्थान नाम कर्म है । जिस कर्मके उदयसे शरीरका आकार बड़ा होता है, वह कुब्ज शरीर संस्थान नामकर्म है । वामन अर्थात् बौना शरीर जिस कर्मके उदयसे बनता है वह वामन शरीर नामकर्म है । हुण्ड अर्थात् सब ओर से विषम आकार वाला शरीर जिस नाम कर्मके उदयसे बनता है, वह हुण्डका शरीर संस्थाननामकर्म । जिस कर्मके उदयसे आठों अंगों और उपांगोंकी रचना होती है, वह अंगोपांग नामकर्म है । वह तीन प्रकारका है - औदारिक अंगोपांग, वैक्रियिक शरीर अंगोपांग और आहारक शरीर अंगोपांग नामकर्म । जिस कर्मके उदयंसे शरीर में हड्डियोंकी निष्पत्ति होती है, वह शरीर संहनन नामकर्म है । वह छः प्रकारका है। वज्ररूपसे स्थित हड्डी और ऋषभ अर्थात् वेष्टन इन दोनों के साथ जिसमें वज्रमय कीलें हों, वह वज्र ऋषभ नाराच शरीर संहनन है । जिसमें हड्डी और कीलें तो वज्ररूप हों, परन्तु ऋषभ वज्रमय न हो वह वज्रनाराच शरीर संहनन है । जिसमें हाड़ को लें सहित हों किन्तु वज्ररूप न हों, वह नाराच संहनन है । कीलसे आधा भिदा हुआ संहनन अर्धनाराच शरीर संहनन है । परस्पर में कीलित संहनन कीलित शरीर संहनन है । जिसमें हड्डियां स्नायुओंसे बँधी होती हैं, वह असंप्राप्त सरीसृपादि शरीर संहनन है । इनके कारण जो कर्म हैं उनके भी ये ही नाम हैं । जिस कर्मके उदयसे शरीरमें वर्णकी उत्पत्ति होती है, वह वर्णनाम कर्म है । वह पाँच प्रकारका है— कृष्णवर्ण, नीलवर्ण, रुधिर
[ गा० ८४
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org