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नयचक्र
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-१७६ ] एतत्समर्थनार्थ दृष्टान्तमाह
जह सत्थाणं माई सम्मत्तं जह तवाइगुणणिलए।
धाउवाए रसो तह णयमूलं अणेयंते ॥१७५॥ नैकान्तेन वस्तुस्वभावः स्वार्थश्च सिद्धयतीत्याह
तच्चं विस्सवियप्पं एयवियप्पेण साहए जो हु। तस्स ण सिज्झइ वत्थू किह एयन्तं पसाहेदि ॥१७६॥
अभिप्रायके अनुसार उसका कथन करता है अतः उसका कथन उतने ही अंशमें सत्य है सर्वाशमें सत्य नहीं है । दूसरा ज्ञाता उसी वस्तुको अपने अभिप्रायके अनुसार भिन्नरूपसे कहता है। उनके पारस्परिक विरोधको नयदृष्टिसे ही दूर किया जा सकता है। अतः वस्तुके यथार्थ स्वरूपको समझनेके साथ उसके सम्बन्धमें विभिन्न कलाओंके विभिन्न अभिप्रायोंको समझनेके लिए नयको जानना चाहिए ।
आगे उक्त कथनके समर्थनमें दृष्टान्त देते हैं
जैसे शास्त्रोंका मूल अकारादि वर्ण हैं, तप आदि गुणोंके भण्डार साधुमें सम्यक्त्व है, धातुवादमें पारा है, वैसे ही अनेकान्तका मूल नय है ।।१७५।।
विशेषार्थ-यदि अकारादि अक्षर न हों तो शास्त्रोंकी रचना और लेखन सम्भव नहीं है। इसी तरह कितना ही तपस्वी हो किन्तु यदि वह सम्यक्त्वसे रहित है तो उसकी तपस्या व्यर्थ है, सम्यक्त्वके बिना उसकी कोई कीमत नहीं है। इसी प्रकार धातुओंमें पारा है। पारेके योगसे ही अन्य धातुओंका शोधन आदि होता है। इसी तरह अनेकान्तका मल नय है जैसा पहले लिखा है।
आगे कहते है कि एकान्तके द्वारा वस्तु स्वभावकी भी सिद्धि नहीं होती
तत्त्व तो नाना विकल्प रूप है उसे जो एक विकल्पके द्वारा सिद्ध करता है उसको वस्तुकी सिद्धि नहीं होती । तब वह कैसे एकान्तका साधन कर सकता है । १७६ ।।
विशेषार्थ-वस्तु एकान्तरूप है इसका मतलब होता है कि उसमें नानाधर्म नहीं पाये जाते । किन्तु ऐसा नहीं है वस्तु तो नाना धर्मात्मक है और वे नानाधर्म परस्परमें विरोधी नहीं होते हुए भी परस्परमें विरोधी जैसे प्रतीत होते हैं। यण सत् है वह अपने द्रव्य क्षेत्रकाल भावसे सत् है पर द्रव्यादिसे नहीं, जैसे घड़ा पार्थिव रूपसे, इस क्षेत्र और इस कालकी दृष्टि से तथा अपनो वर्तमान पर्यायोंसे सत् है अन्यसे नहीं। यदि ऐसा न माना जाये तो घड़ा अनियत द्रव्यादिरूप होनेसे बन नहीं सकेगा। जैसे यदि घड़ा पार्थिवत्वकी तरह जलादि रूपसे भी सत् हो जाये या इस क्षेत्रकी तरह अन्य क्षेत्रों में सत् हो जाये, इस कालकी तरह अतीत अनागत कालमें भी सत् हो जाये तो वह सर्वदेश सर्वकाल व्यापी और सर्वरूप हो जायेगा। और ऐसा होनेसे जैसे वह इस देश और कालमें हम लोगोंके प्रत्यक्ष है और कार्य करता है उसी तरह अतीत अनागत काल तथा सभी देशोंमें उसको प्रत्यक्ष तथा कार्यकारी होना चाहिए। इसी तरह प्रत्येक वस्तु स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावकी दृष्टिसे ही सत् है अन्य रूपोंसे नहीं। ऐसे परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाले अनन्त धर्मों के समूहरूप वस्तु हैं । अतः उसे एकान्तरूप नहीं माना जा सकता । फिर भी जो मनुष्य किसी एक धर्मकी मुख्यतासे व्यवहार करते हैं यह नय दृष्टि है और नयदृष्टिसे ही एकान्तकी सिद्धि हो सकती है। उसके बिना सम्यक् एकान्त सम्भव नहीं है। अपने कथनके समर्थन में ग्रन्थकार दो श्लोक प्रमाण रूपसे उद्धत करते हैं।
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