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-२४१] नयचक्र
१२३ ण मुणइ वत्थुसंहावं अह विवरीयं हिरवेक्खदो मुणई। तं इह मिच्छाणोणं विवरीयं सम्मरूवं खु ॥२४०॥ णो उवयारं कीरइ णाणस्स दंसणस्स वा जेए।
किह णिच्छित्ती णाणं अण्णेसि होइ णियमेण ॥२४१॥ जो वस्तु-स्वरूपको नहीं जानता या निरपेक्ष रूपसे विपरीत जानता है वह मिथ्याज्ञान है और उससे विपरीत सम्यग्ज्ञान है ।।२४०।।
विशेषार्थ-वस्तुके यथार्थ स्वरूपको नहीं जानना या निरपेक्ष रूपसे कुछको कुछ जानना मिथ्याज्ञान है । मिथ्यात्वके पाँच भेदोंमें एक अज्ञान मिथ्यात्व है और दूसरा विपरीत मिथ्यात्व है। मिथ्यात्वमूलक जो ज्ञान होता है वह भी मिथ्या कहा जाता है। अतः वस्तु-स्वरूपको न जानना भी मिथ्याज्ञान है और निरपेक्ष रूपसे विपरीत जानना भी मिथ्याज्ञान है। जैसे प्रत्येक नय वस्तुके एक-एक धर्मको जानता है, किन्तु वस्तुमें केवल एक ही धर्म नहीं होता, अनेक धर्म होते हैं । अब यदि कोई किसी एक नयके विषयभूत एक धर्मको ही यथार्थ मानकर उसीका आग्रह करने लगे और उसी वस्तु में रहनेवाले अन्य धर्मोको जो दूसरे नयोंके विषयभत है न माने तो उसका ज्ञान भी मिथ्या कहा जायेगा क्योंकि वस्तु केवल किसी एक धर्मवाली ही नहीं है। जैसे द्रव्य पर्यायात्मक वस्तुको द्रव्यकी प्रधानता और पर्यायकी अप्रधानतासे विषय करनेवाला द्रव्यार्थिकनय है और पर्यायकी प्रधानता और द्रव्यको गौणतासे विषय करनेवाला पर्यायार्थिक नय है। इस गौणता और मुख्यताकी दृष्टिको भुलाकर यदि कोई केवल द्रव्य रूप ही वस्तुको जानता है या पर्यायरूप वस्तुको ही जानता है और उसे यथार्थ मानता है तो उसका ज्ञान मिथ्या है क्योंकि वस्तु न केवल द्रव्यरूप है और न केवल पर्यायरूप है। इसी तरह जीवकी अशुद्ध दशाका ग्राहक व्यवहारनय है और शुद्ध स्वरूपका ग्राहक निश्चयनय है। इन दोनोंमेंसे यदि कोई एकको ही यथार्थ मानकर उसीका अवलम्बन करे तो वह मिथ्या है, क्योंकि केवल व्यवहारका अवलम्बन करनेसे जीवके शुद्ध स्वरूपकी प्रतीति त्रिकालमें भी नहीं हो सकती और उसके बिना उसकी प्राप्तिका तो प्रश्न ही नहीं उठता। जिसकी पहचान ही नहीं उसको प्राप्ति कैसी? इसी तरह यदि कोई निश्चय नयके विषयभूत शद्ध स्वरूपको ही यथार्थ मानकर यह भूल ही जाये कि वर्तमान मेरो दशा अशुद्ध है तो वह उसकी शुद्धताके लिए प्रयत्न क्यों करेगा? और प्रयत्न नहीं करनेपर वह अशुद्ध का अशुद्ध ही बना रहेगा । अतः सापेक्ष दोनों नयोंसे वस्तु स्वरूपको जानना हो सम्यग्ज्ञान है।
ज्ञान और दर्शनका ज्ञेयमें उपचार नहीं किया जाता । तब नियमसे अन्य पदार्थों के निश्चय को ज्ञान कैसे कहा जा सकता है ||२४१॥
विशेषार्थ-ज्ञान गुण जीवका जीवोपजीवी गुण है। जब वह ज्ञेय घट, पट आदिको जानता है तो ज्ञेयोपजीवी नहीं होता । अर्थात् जैसे घटको जानते समय ज्ञान घट निरपेक्ष जीवका गुण है वैसे हो घट आदिको नहीं जानते समय भी ज्ञान घट निरपेक्ष जीवका गुण है । आशय यह है कि अर्थ विकल्पात्मक ज्ञानको प्रमाण कहा जाता है। अर्थ 'स्व' और 'पर'के भेदसे दो प्रकारका है और ज्ञानके तद्रप होनेका नाम विकल्प है। यह लक्षण निश्चय दृष्टिसे ठीक नहीं है,क्योंकि सत्सामान्य निर्विकल्पक होता है। किन्तु अवलम्बनके बिना विषयरहित ज्ञानका कथन करना शक्य नहीं है। इसलिए घट, पट आदि ज्ञेयोंका अवलम्बन लेकर ज्ञानका कथन किया जाता है। किन्तु वस्तुतः ज्ञान जीवका भावात्मक गुण है। उसका किसी भी कालमें अभाव नहीं होता । अर्थात ऐसा नहीं है कि घट, पट आदि बाह्य अर्थोके होनेपर घटज्ञान होता है और उनके अभावमें ज्ञान नहीं होता । जैसे उष्ण गुणके बिना अग्निका अस्तित्व नहीं, वैसे ही ज्ञानगुणके बिना आत्माका अस्तित्व नहीं। जो जानता है वही ज्ञान है।अतः आत्मा ज्ञानस्वरूप ही है।
१. वत्थु सब्भावं आ० । २. मिच्छादिट्री आ० । ३. सम्मत्तरूवं खु आ० ।
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