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नयचक्र
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सद्देसु जाण णामं तहेव ठवणा हु थूलरिउसुत्ते । दव्वं पिय उवयारे भावं पज्जायमझगदं ॥२८॥ णिक्खेव णय पमाणं णादण भाययंति जे तच्च । ते तत्थतच्चमग्गे लहंति लग्गा हु तत्थयं तच्चं ॥२८२॥
कहा है।अतः त्रिकालगोचर क्रमभावी अनन्त पर्यायोंका जो आश्रय है वह द्रव्य है। जब वह द्रव्य अनागत पर्याय विशेष के प्रति अभिमुख होता है तब यह निश्चित होता है कि द्रव्य वर्तमान पर्यायसे युक्त है और पूर्व पर्यायको छोड़ देता है,उसके बिना अनागत पर्याय विशेषके प्रति वह अभिमुख नहीं हो सकता। किन्तु द्रव्यनिक्षेपके प्रकरणमें द्रव्यार्थ प्रधान होनेसे अनागत परिणाम विशेषके प्रति अभिमुख अविनाशीको द्रव्य कहा है। अतः कोई अन्तर नहीं है। इस तरह आचार्य विद्यानन्दने गणपर्ययवद द्रव्यको तथा अनागत परिणाम विशेषके प्रति अभिमुख द्रव्यको एक ही कहा है केवल कथनभेदका ही अन्तर है। 'नयचक्रके रचयिताका अभिप्राय उसी कथनसे प्रतीत होता है किन्तु उन्होंने जो आगे कहा है कि उनको भिन्न करके उनमें निक्षेपका कथन नहीं करना चाहिए,इसका अभिप्राय स्पष्ट नहीं हुआ।
आगे निक्षेपोंमें नययोजना करते हैं
शब्दनयोंमें नाम निक्षेप तथा स्थूल ऋजुसूत्रनयमें स्थापना निक्षेपका अन्तर्भाव जानना। उपचारसे द्रव्य भी ऋजुसूत्रनयके अन्तर्गत है और भावनिक्षेप पर्यायके अन्तर्गत है ॥२८१।।
विशेषार्थ-श्री जयधवलाजीमें चूर्णिसूत्रोंका व्याख्यान करते हुए किस निक्षेपका कौन नय स्वामी है, इसका कथन किया है। उसके अनुसार नैगमनय, संग्रहनय और व्यवहारनय सभी निक्षेपोंके स्वामी हैं। इस परसे यह शंका की गयी है कि नामनिक्षेप, स्थापनानिक्षेप और द्रव्यनिक्षेपके स्वामी तो तीनों नय हो सकते हैं क्योंकि तीनों द्रव्यार्थिक नय हैं । किन्तु भावनिक्षेपके स्वामी उक्त तीनों नय नहीं हो सकते। क्योंकि आचार्य सिद्धसेनने भी 'सन्मतिमें कहा है कि नामस्थापना और द्रव्य ये तीनों द्रव्याथिकनयके निक्षेप हैं और भाव पर्यायार्थिक नयका निक्षेप है। अतः भाव निक्षेपके स्वामी उक्त तीनों नय कसे हो सकते हैं उसका समाधान यह किया है कि वर्तमान पर्यायसे युक्त द्रव्यको भाव कहते हैं। किन्तु जिनमें पर्याएँ गौण है-ऐसे शुद्ध द्रव्यार्थिक नयोंमें भूत, भविष्यत् और वर्तमान रूप कालविभाग नहीं होता, क्योंकि कालका विभाग पर्यायोंकी प्रधानतासे होता है। अतः शुद्ध द्रव्यार्थिकनयों में तो भावनिक्षेप नहीं बन सकता। फिर भी जब त्रिकालवर्ती व्यंजन पर्यायकी अपेक्षा भावमें भूत, भविष्यत्, वर्तमान कालका विभाग स्वीकार कर लिया जाता है,तब अशुद्ध द्रव्यार्थिक नयोंमें भावनिक्षेप बन जाता है । 'सन्मति सत्र में जो भावनिक्षेपकी पर्यायार्थिक नयका विषय कहा है सो जो भावनिक्षेप ऋजुसूत्रनयका विषय है उसकी अपेक्षासे कहा है । चूणिसूत्रके अनुसार ऋजसूत्रनय स्थापनाके सिवाय सभी निक्षेपोंको स्वीकार करता है। क्योंकि ऋजसूत्रनयके विषयमें सादश्य सामान्य नहीं पाया जाता, इसलिए वहाँ स्थापना निक्षेप नहीं बनता। श्री जयधवलाकारने तो अशुद्ध ऋजुसूत्रनयमें भी स्थापना निक्षेपका निषेध किया है, क्योंकि व्यंजनपर्यायरूप घटादि पदार्थोंमें सादृश्यके रहते हुए भी एकत्वकी स्थापना सम्भव नहीं है। परन्तु नयचक्रके रचयिताने सादृश्यके आधारपर ही स्थूल ऋजुसूत्रमें स्थापना निक्षेपको गर्भित किया प्रतीत होता है । ऋजुसूत्रनय पर्यायार्थिक नय है, इसलिए उसमें उपचारसे द्रव्यनिक्षेपको गभित किया है। जयधवलाके अनुसार शब्द,समभिरूढ़ और एवंभूत इन तीनों शब्दनयोंके विषय नामनिक्षेप और भावनिक्षेप है। इस सम्बन्धमें यह ज्ञातव्य है कि निक्षेप विषय या ज्ञेय है और नय विषयी या ज्ञायक है,इसीसे यह कथन किया गया है कि किस नयका विषय कोन निक्षेप है।
आगे निक्षेपादिके जाननेका प्रयोजन बतलाते हैं___ जो निक्षेप नय और प्रमाणको जानकर तत्त्वको भावना करते हैं वे वास्तविक तत्त्वके मार्गमें संलग्न होकर वास्तविक तत्त्वको प्राप्त करते हैं ।।२८२।।
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