Book Title: Naychakko
Author(s): Mailldhaval, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 196
________________ १४६ तमेवमुपपच्या समर्थयति—— उक्तं च द्रव्यस्वभावप्रकाशक दव्वसुयादो सम्मं भावं तं चैव अप्पसब्भावं । तं पिय केवलणाणं संवेयणसंगदो जह्मा ॥ २९७॥ दव्वसुयादो भावं तत्तो भेयं हवेइ संवेदं । तत्तो संवित्त खलु केवलणाणं हवे तत्तो ॥ हारनयसे सुवर्ण पाषाणको स्वर्णका साधन कहा जाता है । वैसे ही व्यवहारनयसे व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चय मोक्षमार्गका साधन कहा जाता है, क्योंकि सविकल्प दशा में वर्तमान भावलिंगी मुनिको तत्त्वार्थश्रद्धान, तत्त्वार्थज्ञान और महाव्रतादि रूप चारित्र निर्विकल्प दशामें वर्तते हुए शुद्धात्म श्रद्धान- ज्ञान और अनुष्ठान के साधन होते हैं । Jain Education International [ गा० २९७ - आगे युक्तिके द्वारा उक्त कथनका समर्थन करते हैं द्रव्यश्रुतसे समीचीन भाव होता है । वह समीचीन भाव आत्माके स्वभावरूप ही है । तथा आत्मस्वभाव केवल ज्ञानरूप है, क्योंकि आत्मसंवेदनसे ही वह प्रकट होता है ||२९७|| कहा भी है द्रव्यश्रुतसे भावश्रुत और भावश्रुतसे भेदज्ञान होता है । भेदज्ञानसे आत्मसंवेदन होता है । और आत्मसंवेदनसे केवलज्ञान होता है । विशेषार्थ- - ग्रन्थ या शब्दरूप श्रुतको द्रव्यश्रुत कहते हैं । द्रव्यश्रुतके पढ़ने या सुननेसे जो उसका ज्ञान होता है उसे भावश्रुत कहते हैं । इसीसे व्यवहार में द्रव्यश्रुतको भावश्रुतका कारण कहा जाता है । किन्तु यथार्थ में वचनात्मक वस्तु श्रुतज्ञान नहीं है । क्योंकि वचन अचेतन है, इसलिए ज्ञानमें और द्रव्यश्रुतमें भेद है । इसी तरह शब्द भी ज्ञान नहीं है, क्योंकि शब्द पुद्गल द्रव्यकी पर्याय है । यही बात समयसार के सर्वविशुद्धज्ञानाधिकारमें कही है । जीव ही एक ज्ञान है, क्योंकि जीव चेतन है और वह ज्ञानस्वरूप है। अतः जीवमें और ज्ञानमें अभेद है । जो जानता है वही ज्ञान है । ज्ञानके योगसे जीव ज्ञानी नहीं है । किन्तु संसार दशामें ज्ञानस्वरूप जीव भी अज्ञानी बना है | अतः बाह्य वस्तुओंका निमित्त मिलने पर भी वह स्वयं ही ज्ञानरूप होता है। इस तरह द्रव्यश्रुतको भावश्रुतका निमित्त कहा जाता है । भावश्रुतसे आत्माको स्व और परका भेदज्ञान होता है । स्व और परका भेदज्ञान होनेसे ही स्वानुभूतिरूप स्वसंवेदन होता है जो सम्यक्त्वका सहभावी है । यह स्वका सम्यक् संवेदन, केवलज्ञानका ही अंश है । वीरसेन स्वामीने 'जयधवला 'टीका ( भाग १, पृ० ४४ आदि) में लिखा है कि केवलज्ञान असिद्ध नहीं है, क्योंकि स्वसंवेदन प्रत्यक्षके द्वारा केवलज्ञानके अंशरूप ज्ञानकी निर्बाध रूप से उपलब्धि होती है अर्थात् मतिज्ञान आदि केवलज्ञानके अंशरूप हैं और स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे सभीको उनकी उपलब्धि होती है । शायद कहा जाये कि मतिज्ञान आदि तो इन्द्रियोंसे उत्पन्न होते हैं, अतः उन्हें केवल ज्ञानका अंश नहीं कहा जा सकता है । किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है; क्योंकि यदि ऐसा मान लिया जाये कि ज्ञान इन्द्रियों से ही पैदा होता है, तो इन्द्रियोंके व्यापारसे पहले ज्ञान गुणका अभाव होने से गुणी जीवके भी अभावका प्रसंग आता है । अतः यह मानना पड़ता है कि इन्द्रिय व्यापार से पहले भी जीवमें ज्ञान सामान्य रहता है । मतिज्ञानादि उसीकी अवस्थाएँ हैं । वस्तुतः ज्ञानगुण तो एक ही है । और वह केवलज्ञानरूप है । इस तरह केवलज्ञान स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे सिद्ध है । सम्यग्दृष्टिको होनेवाला यह वीतराग स्वसंवेदन ही केवलज्ञानके रूपमें विकसित होकर प्रकट होता है । इस तरह व्यवहारको निश्चयका साधन कहा जाता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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