Book Title: Naychakko
Author(s): Mailldhaval, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 202
________________ १५२ द्रव्यस्वभावप्रकाशक [ गा० ३०७ - हिंसा असच्च मोसो मेहुणसेवा परिग्गहे गहणं । अविरदिभेया भणिया एयाणं बहुविहा अण्णे ॥३०७॥ है । मार्ग में चलते हुए पुरुषके पैर में तृण आदिका स्पर्श होनेपर 'कुछ होगा' यह विमोह या अनध्यवसाय है । इसी तरह परस्पर सापेक्ष नयोंके द्वारा द्रव्य, गुण, पर्याय आदिका ज्ञान न होना विमोह है। सीपको चाँदी या रस्सीको सांप समझना विभ्रम या विपर्यय है। इसी प्रकार अनेकान्तात्मक वस्तुको एकान्त रूपसे ग्रहण करना विभ्रम है। इन संशय, विमोह और विभ्रमसे युक्त ज्ञान ज्ञान नहीं है वस्तुतः अज्ञान ही है । इसी तरह वस्तुके मिथ्या स्वरूपको बतलानेवाले शास्त्रोंसे भी जो ज्ञान प्राप्त होता है वह अज्ञान ही है। जो अपने और पर वस्तुओंके स्वरूपको सम्यक् रूपसे जानता है वही सम्यग्ज्ञान है । सम्यग्दृष्टिको भी बाह्यकारणोंसे बाह्यवस्तुओं में संशय,विमोह और विभ्रम होते हैं ; दृष्टिदोष और अन्धकार आदिसे वह भी सीपको चाँदी समझ लेता है, किन्तु इतने मात्रसे वह अज्ञानी नहीं हो जाता। आत्मकल्याणके उपयोगी तत्त्वोंमें उसे संशय, विमोह और विभ्रम नहीं होते । वह वस्तुके यथार्थ स्वरूपको सम्यक् रीतिसे जानता है । यहाँ एक विशेष बात यह कहना है कि सभी शास्त्रकारोंने बन्धके कारणोंमें मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगको बतलाया है। आचार्य कुन्दकुन्दने भी समयसारकी गाथा १०९ में बन्धके इन्हीं चार कारणोंको बतलाया है। किन्तु संवराधिकार गाथा १९० में मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति और योगको गिनाया है। कहा है कि आत्मा और कर्मको एक समझ बैठनेमें मूलकारण मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति और योगरूप अध्यवसान (परिणाम) हैं । चूंकि यहाँ भेद विज्ञानमूलक चर्चा है. इसलिए अज्ञान भावको भी उसके विरोधीके रूपमें गिनाया है। उसीको लक्षमें रखकर इस ग्रन्यके कर्ताने भी बन्धके प्रत्ययोंमें अज्ञानको स्थान दिया प्रतीत होता है। आगे अविरतिके भेद कहते हैं हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुनसेवन और परिग्रहका ग्रहण ये पांच अविरतिके भेद कहे हैं। इनके अन्य बहुतसे भेद हैं।। ३०७॥ विशेषार्थ-व्रत या विरतिका उलटा अविरति है । हिंसा करना, झूठ बोलना, चोरी करना, मैथुनसेवन करना और परिग्रह इकट्ठा करना अविरति है। विरति-पापका त्याग न करनेको अविरति कहते हैं । वे पाप पांच हैं-हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुनसेवन और परिग्रह । प्रमादीपनेसे प्राणोंके घात करनेको हिंसा कहते हैं । हिंसा दो प्रकारको होती है-एक द्रव्यहिंसा, दूसरी भावहिंसा । संसारमें सर्वत्र जीव पाये जाते हैं और वे अपने निमित्तसे मरते भी हैं। किन्तु उनके मर जानेसे ही हिंसा नहीं होती। इसीसे तत्त्वार्थसूत्र में हिंसाके लक्षणमें 'प्रमत्तयोगात्' पद दिया है जो बतलाता है कि जो मनुष्य जीवोंकी हिंसा करनेके भाव नहीं रखता, बल्कि उनको बचानेके भाव रखता है उसके द्वारा जो हिंसा हो जाती है,उसका पाप उसे नहीं लगता। इसीसे कहा है कि प्राणोंका घात हो जानेपर भी हिंसाका पाप नहीं लगता। शास्त्रकारोंने इस बातको एक दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट किया है। वे लिखते हैं -एक मनुष्य देख-देखके चल रहा है, उसके पैर उठानेपर कोई क्षुद्र जन्तु उसके पैरके नीचे अचानक आ जाता है और कुचलकर मर जाता है,तो उस मनुष्यको उस जीवके मारनेका थोड़ा-सा भी पाप नहीं लगता। इसके विपरीत यदि कोई असावधानीसे मार्गमें चलता है, तो उसके द्वारा किसी जीवका घात हो या न हो उसे हिंसाका पाप अवश्य लगता है। जैसा' कहा भी है-'जीव जिये या मरे जो अयत्नाचारी है उसे हिंसाका पाप अवश्य लगता है। किन्तु जो यत्नाचारपूर्वक काम करता है उसे हिंसा हो जानेपर भी हिंसाका पाप नहीं लगता।' अतः हिंसारूप परिणाम ही वास्तवमें हिंसा है। द्रव्यहिंसाको तो हिंसा इसलिए कहा है कि उसका भावहिंसाके साथ सम्बन्ध है किन्तु द्रव्यहिंसाके होनेपर भावहिंसाका होना अनिवार्य नहीं है। जैनेतर धर्मोंमें द्रव्यहिंसा और भावहिंसाको अलग-अलग न माननेसे ही यह शंका की गयी है कि--'जल में जन्तु हैं, थलमें जन्तु है, और पहाड़की चोटीपर चले जाओ तो वहाँ भी जन्तु है । इस तरह जब समस्त लोक जन्तुओंसे भरा है तो कोई अहिंसक कैसे हो सकता है ?' जैनधर्ममें इस शंकाका उत्तर इस प्रकार दिया है--जीव दो प्रकारके होते हैं--सूक्ष्म और स्थल। सूक्ष्म तो न किसीसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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