Book Title: Naychakko
Author(s): Mailldhaval, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 193
________________ -२९१ ] नयचक्र १४३ उवयारेण विजाणइ सम्मगरूवेण जेण परदव्वं । सम्मैगणिच्छय तेण वि सइयसहावं तु जाणंतो ॥२९१॥ नहीं आती । सारांश यह है कि अशुद्धता परद्रव्यके संयोगसे आती है। किन्तु उसमें मूलद्रव्य अन्य द्रव्य रूप नहीं होता । अतः द्रव्य दृष्टिसे तो द्रव्य जो है वही है। उसी तरह आत्माका स्वभाव ज्ञायकमात्र है । उसकी अवस्था पुद्गलकर्मका निमित्त पाकर मलिन है वह पर्याय है। पर्याय दृष्टिसे देखने पर वह मलिन दीखता है, किन्तु द्रव्य दृष्टिसे देखने पर तो ज्ञायक भाव ज्ञायक भाव ही है, वह कुछ जड़को जाननेसे जड़ नहीं हो जाता। ज्ञायक उसे ज्ञेयके जाननेसे कहा जाता है। किन्तु इससे उसमें कोई अशद्धता नहीं आती, क्योंकि जैसे ज्ञानमें ज्ञेयका प्रतिभास हआ वैसे ज्ञायकपनका भी प्रतिभास हआ-जो मैं जाननेवाला हूँ वह मैं ही हूँ, दूसरा कोई नहीं, ऐसा अभेदरूप अनुभव होने पर जाननेरूप क्रियाका कर्ता आप ही है और जिसको जाना वह कर्म भी आप ही है । यह शुद्धनयका विषय है । अन्य जो परसंयोगजनित भेद हैं वे सब भेदरूप अशुद्ध द्रव्यार्थिकनयके विषय हैं। शुद्धनयकी दृष्टि में अशुद्धद्रव्याथिक भी पर्यायाथिक होनेसे व्यवहारनयमें ही गभित है। किन्तु अशुद्धनयको सर्वथा असत्यार्थ नहीं मानना । वह भी परद्रव्यके संयोगसे हुआ वस्तु धर्म है। अशुद्धनयको हेय कहनेका कारण यह है कि अशुद्धनयका विषय संसार है, उसमें आत्मा कष्ट भोगता है । पर द्रव्यसे भिन्न होनेपर ही संसार मिट सकता है और तभी क्लेश भी मिट सकता है। अतः दुःख दूर करनेके लिए शुद्धनयका उपदेश है।शुद्धनयके विषयमें आत्माके कर्मबन्धके निमित्तसे होनेवाली अशद्धता तो दूरकी बात है, उसमें दर्शनज्ञान और चारित्रका भी भेद नहीं है। क्योंकि निश्चयनयसे वस्तु अनन्तधर्मात्मक एक धर्मी है। परन्तु व्यवहारी जन धर्मोंके बिना एक धर्मीको नहीं जानते । अतः आचार्य उन्हें समझाने के लिए अभेदरूप वस्तुमें भी धर्मों के भेदसे भेद करके कहते हैं कि आत्मामें ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है। किन्तु परमार्थसे देखा जाय तो एक अभेदरूप द्रव्य अपने में अनन्त पर्यायोंको पिये हुए है । ऐसी अभेदरूप वस्तुका अनुभव करनेवाले ज्ञानीजनोंकी दृष्टिमें आत्मामें दर्शन भी नहीं, ज्ञान भी नहीं, चारित्र भी नहीं, एक शुद्ध ज्ञायक भाव ही है। अतः अभेदमें भेद करना भी व्यवहार है। और व्यवहारीजनको समझानेके लिए वह उपयोगी है। वैसे व्यवहारीजन 'आत्मा' कहनेसे नहीं समझते । किन्तु व्यवहार मार्गका अवलम्बन लेकर जिसमें दर्शन, ज्ञान, चारित्र है वह आत्मा है-ऐसा कहनेसे झट समझ जाते हैं। अतः व्यवहारके द्वारा ही शुद्धनयरूप परमार्थको समझा जा सकता है। इसलिए परमार्थका प्रतिपादक होनेसे व्यवहारनयका उपदेश किया जाता है। प्रश्न हो सकता है कि व्यवहार परमार्थका प्रतिपादक कैसे है ? इसके लिए कुन्दकुन्दाचार्यने समयसारमें एक उदाहरण दिया है--जो श्रुतज्ञानसे केवल शुद्ध आत्माको जानता है वह श्रुतकेवली है-यह तो परमार्थ है। और जो सब श्रुतज्ञानको जानता है वह श्रुतकेवली है-यह व्यवहार है । इसको स्पष्ट करनेके लिए आचार्य अमृतचन्द्रने कहा है-- सब ही ज्ञान आत्मा है या अनात्मा ? अनात्मा कहना तो उचित नहीं है,क्योंकि चेतन आत्मासे भिन्न जो अचेतन जड़रूप आकाश आदि पाँच द्रव्य हैं उनका ज्ञानके साथ तादात्म्य नहीं है । अतः ज्ञान आत्मा ही है, यही सिद्ध हुआ । श्रुतज्ञान भी आत्मा ही है। ऐसा होने पर यह सिद्ध हुआ कि जो आत्माको जानता है वह श्रुतकेवली है और वही परमार्थ है। इस तरह ज्ञान और ज्ञानीका भेद करके कहनेवाला व्यवहार भी परमार्थको ही कहता है। अधिक नहीं। यतः यह आत्मा या ज्ञान पर द्रव्यको सम्यक् रूपसे उपचारसे जानता है, अतः सम्यक् निश्चयकी दृष्टिसे अपने स्वरूपको जानता है ॥ २९१ ॥ -पर द्रव्यके जाननेको उपचरित और स्वस्वरूपके जाननेको निश्चय कहनेका प्रयोजन यह है कि जिस तरह ज्ञान स्वस्वरूपको तद्रूप होकर जानता है, उस तरह परद्रव्य को उस रूप होकर नहीं जानता। इसीसे नियमसारमें आचार्य कुन्दकुन्दने कहा है कि निश्चयनयसे केवली अपनेको जानता है और व्यवहारनयसे परको जानता है। सापाय १. सम्मगु तेण य णिच्छय वि आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328