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नयचक्र
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परः प्राह-नो व्यवहारी मार्ग इत्याह
णो ववहारो मग्गो मोहो हवदि सुहासुहमिदि 'वयणं । उक्तंच
णियदन्वजाणणटुं इयरं कहियं जिणेहिं छद्दव्वं । तह्मा परछद्दव्वे जाणगभावो ण होइ सण्णाणं ।।
णहु एसा सुंदरा जुत्ती ॥२८६॥ व्यवहार, इसलिए निरूपण की अपेक्षा दो प्रकार मोक्षमार्ग जानना । एक निश्चय मोक्षमार्ग है, एक व्यवहार मोक्षमार्ग है-इस प्रकार दो मोक्षमार्ग मानना मिथ्या है। इसी तरह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र भी दो नहीं हैं। उनका निरूपण दो दृष्टियोंसे किये जानेसे ही प्रत्येकके दो-दो भेद कथनमें आते हैं। प्रत्येकका स्वाश्रित कथन निश्चय है और पराश्रित कथन व्यवहार है। जैसे विपरीत अभिनिवेश रहित श्रद्धानरूप मात्माका परिणाम निश्चय सम्यक्त्व है और देव- गुरु-धर्मादिका श्रद्धान व्यवहारसम्यक्त्व है । ये दोनों सम्यक्त्व एक ही कालमें पाये जाते हैं । निश्चय नाम सत्यार्थका है । सत्यार्थका जो कारण होता है उसे कारणमें कार्यका उपचार करके व्यवहार कहते हैं। व्यवहार नाम ही उपचारका है। इसी तरह सम्यग्दर्शनके होनेपर जो अंग पूर्वगत अर्थका ज्ञान होता है उसे व्यवहार सम्यग्ज्ञान कहते हैं और तदनुसार तपस्यादि करनेको व्यवहार सम्यक्चारित्र कहते हैं तथा आत्मपरिज्ञान और आत्मस्थिति ये निश्चय सम्यग्ज्ञान और निश्चय सम्यक्चारित्र हैं। जहां आत्मश्रद्धा, आत्मज्ञान और आत्मस्थितिसे शून्य दर्शनज्ञान और चारित्र होता है वहाँ निश्चय तो है ही नहीं,व्यवहार भी आभास मात्र है क्योंकि देव-गुरु-धर्म आदिका श्रद्धान होनेपर भी विपरीत अभिनिवेश तो दूर हुआ नहीं और उसके दूर हुए बिना कारणमें कार्यका उपचार रूप व्यवहार सम्भव नहीं है। अशुभोपयोग तो हेय ही है और शुभोपयोग भी बन्धका कारण होनेसे हेय है। किन्तु नीचेकी अवस्थामें जीवोंके शुभोपयोग और शुद्धोपयोग दोनों साथ-साथ पाये जाते हैं, इसलिए उपचारसे शुभोपयोगको मोक्षका मार्ग भी कहा है, किन्तु वस्तु-विचारसे तो शुभोपयोग भी मोक्षका घातक है। अतः अशुभोपयोग और शुभोपयोगको हेय जानकर उनके त्यागका उपाय करना चाहिए, किन्तु जहाँ शुद्धोपयोग सम्भव नहीं है वहाँ अशुभोपयोगको छोड़कर शुभोपयोगमें ही लगना चाहिए क्योंकि शुभोपयोगसे अशुभोपयोगमें अधिक अशुद्धता है । शुभोपयोग होनेपर बाह्य व्रतादिकी प्रवृत्ति होती है और अशुभोपयोग होनेपर बाह्य अवतादिककी प्रवृत्ति होती है । तथा पहले अशुभोपयोग छट कर शुभोपयोग होता है, बादमें शुभोपयोग छूटकर शुद्धोपयोग होता है। यही क्रम है। कोई-कोई इसीसे शुभोपयोगको शुद्धोपयोगका कारण मान लेते हैं । किन्तु ऐसा माननेसे अशुभोपयोगको शुभोपयोगका कारण मानना होगा क्योंकि जैसे शुभोपयोग छूटकर शुद्धोपयोग होता है वैसे ही अशुभोपयोग छूटकर शुभोपयोग होता है । द्रव्यलिंगीके शुभोपयोग तो उत्कृष्ट होता है,फिर भी शुद्धोपयोग नहीं होता है। इसलिए परमार्थसे इन दोनों में कार्यकारणभाव नहीं है। इतना है कि शुभोपयोग होनेपर यदि शुद्धोपयोगका यत्न करता है तो वह हो जाता है। किन्तु यदि शुभोपयोगको ही उपादेय जानकर उसीका साधन करता रहेगा तो शुद्धोपयोग कैसे होगा ।
किसीका कहना है कि व्यवहारमार्ग ही नहीं, ऐसा आगे कहते हैं--
व्यवहार मार्ग नहीं है क्योंकि व्यवहार या तो शुभरूप होता है या अशुभरूप होता है और शुभ तथा अशुभ तो मोहरूप हैं।
कहा भी है
निज द्रव्य (आत्मा)को जाननेके लिए जिनेन्द्र देवने अन्य छह द्रव्योंका कथन किया है। इसलिए पररूप छह द्रव्योंमें जो ज्ञायक भाव है अर्थात अपने सिवाय बाकीके छह द्रव्योंका जो ज्ञान है वह सम्यग्ज्ञान नहीं है।
किन्तु यह युक्ति सुन्दर नहीं है ।। २८६ ॥ १. 'अत्र पतितं किचिंत' इति 'ज' प्रती।
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