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नयचक्र
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धम्मी धम्मसहावो धम्मा पुण ऍक्कऍक्कतण्णिट्ठा ।
अवरोप्परं विभिण्णा गयदो गउणमुक्खभावेण ॥२६०॥ सापेक्षतासाधकसम्बन्धं युक्तिस्वरूपं चाह
*सियजत्तो णयणिवहो दव्वसहावं भणेइ इह तत्थं । सुणयपमाणा जुत्ती णहु जुत्तिविवज्जियं तच्चं ॥२६१॥
विशेषार्थ---जैसे अस्तिधर्मका प्रतिपक्षी नास्ति है, एकका प्रतिपक्षी अनेक है। ये दोनों ही अर्थात् अस्ति और नास्ति या एक और अनेकत्व वस्तुधर्म हैं। इन दोनों धर्मोको लेकर ही सप्तभंगी की योजना की जाती है । दोनों धर्मोंमेंसे एक-एकके अवलम्बनसे पहला और दूसरा भंग बनता है। दोनों धर्मोको क्रमसे एक
तीसरा भंग बनता है। दोनों धर्मोको युगपत् एक साथ लेनेपर चौथा अवक्तव्य भंग बनता है। इस चौथेके साथ क्रमसे पहले, दूसरे और तीसरे भंगको मिलानेसे पांचवां, छठा और सातवाँ भंग बनता है । इस तरह भंगरचना जानना चाहिए ।
धर्मी ( वस्तु ) धर्मस्वभाव होता है और धर्म एक-एक करके वस्तुमें रहते हैं । वे नयदृष्टिसे गौणता और मुख्यतासे परस्परमें भिन्न होते हैं ॥२६०॥
विशेषार्थ-धर्मी जीवादि वस्तुमें अनन्तधर्म रहते हैं। अतः प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मवाली होती है। किन्तु वे धर्म धर्मीसे न तो सर्वथा भिन्न ही होते हैं और न सर्वथा अभिन्न ही होते हैं, बल्कि कथंचिद् भिन्न और कथंचित् अभिन्न होते हैं । उन धर्मोमेंसे किसी एक धर्मके प्रधान होने पर 'स्यात्' शब्दसे सूचित अन्यधर्म गौण हो जाते हैं । इस तरह गोणता और मुख्यतासे वस्तुके धर्मोकी विवक्षा होती है या विवक्षासे धर्मोको गोणता और मुख्यता प्राप्त होती है, धर्म भी परस्परमें सर्वथा भिन्न नहीं होते । नय दृष्टि से ही उनमें भेदकी प्रतीति होती है।
आगे सापेक्षता साधक सम्बन्ध तथा युक्तिके स्वरूपको कहते हैं---
'स्यात्' पदसे युक्त नयसमूह द्रव्यके यथार्थ स्वभावको कहता है। सम्यक् नय और प्रमाणको युक्ति कहते हैं । जो युक्तिसे शून्य है वह तत्त्व नहीं है ।।२६१।।
विशेषार्थ-आचार्य समन्तभद्रने अपने आप्तमीमांसा' (का० १०७) में कहा है कि त्रिकालवर्ती नयों और उपनयोंके विषयभूतधर्मोका ऐसा समूह जिनमें परस्परमें तादात्म्य सम्बन्ध हो, उसे वस्तु कहते हैं। अर्थात् वस्तु अनन्त धर्मात्मक है और एक-एक नय वस्तुके एक-एक धर्मको ग्रहण करता है। अतः सब नयोंका समूह ही वस्तु है। यदि एक नयके विषयभूत धर्मको ही पूर्णवस्तु माना जाये तो वह मिथ्या है अर्थात् प्रत्येक नयका विषय यदि वह अन्य निरपेक्ष हो तो मिथ्या है । इसीसे 'स्यात्' पदसे युक्त नयसमूहको यथार्थ द्रव्य कहा है, क्योंकि 'स्यात्' पद अनेक धर्मोंका सूचक या द्योतक है । स्यात् सापेक्ष नय ही सम्यक् नय है और स्यात् पदसे शून्य नय मिथ्या नय है । नय और प्रमाणके द्वारा गृहीत वस्तु ही यथार्थ होती है वही सबसे यथार्थ युक्ति है । 'युक्ति' शब्दसे उन्हींका ग्रहण किया गया है । अतः युक्तिपूर्वक वस्तुको स्वीकार करना चाहिए अर्थात् प्रमाण और नयके द्वारा गृहीत वस्तु ही यथार्थ है और उसे ही सम्यक् मानकर स्वीकार करना चाहिए । जो नय और प्रमाण रूप युक्तिसे शून्य है वह अवस्तु है ।
१. णिहिट्ठा अ०का। २. -पि भिण्णा आ०। ३. णायव्वा मु०। णयदो य ज । 'धर्म धर्मेऽन्य एवार्थो धर्मिणोऽनन्तर्मिणः । अङ्गित्वेऽन्यतमान्तस्य शेषान्तानां तदङ्गता ॥२२॥' आप्तमी० । ४. 'नयोपनयकान्तानां त्रिकालानां समुच्चयः । अविभ्राड्भावसंबन्धो द्रव्यमेकमनेकधा ॥१०७॥ -आप्तमी ।
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