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नयचक्र
विषयिणः प्रधानत्वेन विषयस्याधेयत्वमाह
एक्को वि झेयरूवो इयरो ववहारदो य तह भणिओ। णिच्छयणएण सुद्धो' सम्मगेतिदयेण णिय अप्पा ॥२६५॥
हैं । वस्तु तो अनेक धर्मोंका एक अखण्ड पिण्ड है। जो नय उनमें भेदका उपचार करता है वह व्यवहारनय है और जो ऐसा न करके वस्तुको उसके स्वाभाविक रूपमें ग्रहण करता है वह निश्चय नय है। आत्मा अनन्तधर्मरूप एक अखण्डधर्मी है, परन्तु व्यवहारी जन अभेद रूप वस्तुमें भी भेदका व्यवहार करके ऐसा कहते हैं कि आत्माके दर्शन, ज्ञान,चारित्र हैं। निश्चयसे देखा जाये तो आत्मद्रव्य अनन्त धर्मोको इस तरह पिये हुए बैठा है कि उसमें भेद नहीं है। किन्तु भेदका अवलम्बन किये बिना व्यवहारी जीवको आत्माके
• प्रतीति नहीं करायी जा सकती। अतः जहांतक वस्तु स्वरूपको जाननेकी बात है वहांतक ही व्यवहारनयकी उपयोगिता है, किन्तु जबतक व्यवहारका अवलम्बन है तबतक आत्माके यथार्थ स्वरूपकी प्राप्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि व्यवहारनय भेददृष्टि प्रधान है और भेददृष्टिमें निर्विकल्प दशा नहीं होती। तथा सरागीके जबतक रागादि दूर नहीं होते, तबतक निर्विकल्प दशा प्राप्त नहीं होती। इसलिए अभेदरूप निर्विकल्प दशामें पहुँचनेके लिए निश्चय नयकी उपयोगिता है । वीतराग होनेके पश्चात् तो नयका अवलम्बन ही छूट जाता है। इसके अतिरिक्त भी निश्चय और व्यवहारका एक लक्षण है। जो शुद्धद्रव्यका निरूपण करता है वह निश्चयनय है और जो अशुद्धद्रव्यका निरूपण करता है वह व्यवहारनय है । इसीसे निश्चयनयको शुद्धनय और व्यवहारनयको अशद्धनय भी कहते है। अशद्धनयके अवलम्बनसे अशुद्ध आत्माकी प्राप्ति होती है और शुद्धनयका अवलम्बन करनेसे शुद्धआत्माकी प्राप्ति होती है।
विषयोकी प्रधानतासे विषयका ध्येयपना बतलाते हैं
एक भी ध्येयरूप व्यवहारनयसे भेदरूप कहा गया है। निश्चयनयसे शुद्ध आत्मा ध्येयरूप है और व्यवहारनयसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रसे युक्त निज आत्मा ध्येय है।॥२६५।।
विशेषार्थ-ऊपर कहा है कि जो एक वस्तुके धर्मों में कथंचित भेदका उपचार करता है वह व्यवहारनय है और जो ऐसा नहीं करता वह निश्चयनय है । अतः निश्चयनयकी दृष्टि से तो शुद्ध-भेदोपचार रहित अखण्ड एक आत्मा ही ध्यान करनेके योग्य है । किन्तु व्यवहारनयसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र गुणोंसे युक्त आत्मा ध्येय है-ध्यान करनेके योग्य है । आगममें ध्यानके चार भेद कहे हैं-आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान । इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, रोग और भोगका ही सतत चिन्तन करते रहनेको आर्तध्यान कहते हैं। यह आर्तध्यान मिथ्यादृष्टि से लेकर छठे गुणस्थान पर्यन्त जीवोंके होता है। मिथ्यादृष्टिका आर्तध्यान तिर्यंचगतिका कारण है, किन्तु जिस सम्यग्दष्टिने सम्यग्दर्शन उत्पन्न होनेसे पहले तिर्यंचगतिकी आयु बांधी है उसे छोड़कर अन्य सम्यग्दृष्टियोंके कदाचित् होनेवाला आर्तध्यान तिर्यंचगतिका कारण नहीं होता, क्योंकि वह अपनी शुद्धआत्माको ही उपादेय मानता है, इसलिए उसके उस जातिका संक्लेश नहीं होता। हिंसामें, झूठ बोलनेमें, चोरी करनेमें और परिग्रहके संचयमें आनन्द मानना रौद्रध्यान है-यह भी मिथ्यादृष्टि से लेकर पांचवें गुणस्थान तकके जीवोंके होता है। मिथ्यादृष्टिका रौद्रध्यान नरकगतिका कारण है। किन्तु बद्धायष्क सम्यग्दष्टिको छोड़कर अन्य सम्यग्दष्टियोंका रौद्रध्यान उक्त कारणसे नरकगतिका कारण नहीं है। ये दोनों ध्यान संसारके कारण होनेसे छोड़ने योग्य हैं। धर्मध्यान असंयत सम्यग्दृष्टिसे लेकर सातवें गुणस्थान तकके जीवोंके होता है । यद्यपि यह ध्यान मुख्यरूपसे पुण्यबन्धका कारण है, तथापि परम्परासे मुक्तिका कारण होता है। सहज शुद्ध परम चैतन्यशाली तथा परिपूर्ण आनन्दस्वरूप अपने आत्मामें उपादेय बुद्धिको करके मैं अनन्त ज्ञानस्वरूप हूँ, अनन्त सुखस्वरूप हूँ-इस प्रकारको भावनाको आभ्यन्तर धर्मध्यान कहते हैं । और
१. सिद्धो अ० आ० ख० मु० ज०। २. सम्मगुणति-अ.क.।
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