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नयचक्र
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बंधव मोक्खहेऊ अण्णो ववहारदो य णायव्वो।
णिच्छयदोणिय भावो भणिओ खलु सव्वदरसीहिं ॥२३७॥ आदि कहा जाता है। जैसे जिस घड़ेमें घी रखा रहता है उसे घीका घड़ा कह देते हैं। वास्तव में तो घड़ा धोका नहीं, मिट्टीका है । वैसे ही अज्ञानी लोगोंको शुद्ध जीवका ज्ञान न होनेसे और अशुद्ध जीवसे हो सुपरिचित होनेसे इन्द्रिय आदिके द्वारा ही जीवका ज्ञान कराया जाता है। किन्तु यथार्थमें तो ये सब शरीरके धर्म है । अतः अन्यके धर्मको अन्यमें आरोपण करना व्यवहारनयका विषय है। इसीसे व्यवहारनयको असत्यार्थ या अभूतार्थ कहा है । किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि व्यवहारनय सर्वथा ही मिथ्या है। यदि ऐसा माना जायेगा तो परमार्थसे संसार और मोक्षका ही अभाव हो जायेगा क्योंकि जीवकी संसार दशा भी तो व्यवहार से ही है। संसार दशा जीवका स्वरूप तो नहीं है, इसीलिए पराश्रित होने से वह व्यवहारनयका विषय है। और संसार पूर्वक ही मोक्ष होता है। अत: जब संसार सर्वथा मिथ्या ठहरेगा तो मोक्षका प्रश्न ही नहीं उठता। और जब संसार तथा मोक्ष नहीं रहेगा तो संसारके कारण आस्रव, बन्ध तथा मोक्षके कारण संक निर्जरा भी नहीं रहेंगे। इसके सिवाय शरीरसे जीवको सर्वथा भिन्न मानकर उनका घात करनेसे हिंसाका पाप नहीं लगेगा। यदि पाप मानते हो तो सिद्ध होता है कि व्यवहारनय सर्वथा मिथ्या नहीं है। _ व्यवहारनयसे बन्धकी तरह मोक्षका हेतु भी अन्य जानना चाहिए। किन्तु निश्चयनयसे सर्वदर्शी भगवान्ने निजभावको बन्ध और मोक्षका कारण कहा है ॥२३७।।
विशेषार्थ-जो पराश्रित कथन है वह व्यवहारनय है।जो स्वाश्रित है वह निश्चयनय है । अतः व्यवहारनयसे बन्धकी तरह मोक्षका कारण भी अन्य है और निश्चयनयसे बन्ध और मोक्षका कारण आत्माका भाव है । उदाहरणके लिए-एक पुरुष शरीरमें तेल लगाकर धूलभरी भूमिमें अनेक काम करता है, वृक्षोंको काटता है, दौड़-धूप करता है तो उसका शरीर धूलसे लिप्त हो जाता है। और यदि वही मनुष्य शरीर में तेल न लगाकर उसी धूलभरी भूमिमें वही सब काम करता है तो उसका शरीर धूलसे लिप्त नहीं होता। इसपर विचार करनेसे ज्ञात होता है कि उसके शरीरमें लगा तेल ही उसके धूलसे लिप्त होने में कारण है। यदि धूलभरी भूमि कारण हो तो तैल नहीं लगाने पर भी उसका शरीर धूलसे लिप्त होना चाहिए । इसी तरह यदि दौड़-धूप कारण हो तो तेलसे निलिप्त होनेपर भी उसका शरीर धूलसे लिप्त होना चाहिए । इससे यही सिद्ध होता है कि उसके शरीरमें लगा तेल ही उसके धलिलिप्त होनेका कारण है। इसी तरह मिथ्या दृष्टि जीव अपनी आत्मामें रागभावको करता हुआ, स्वभावसे ही कर्मयोग्य पुद्गलोंसे भरे हुए इस लोकमें मन, वचन, कायसे अनेक प्रकारकी प्रवृत्तियों करता हुआ कर्मरूप धूलिसे लिप्त होता है, तब विवारिए कि इस बन्धका कारण कौन है| स्वभावसे ही कर्मपुद्गलोंसे भरा हुआ लोक तो बन्धका कारण है नहीं, यदि हो तो लोकमें स्थित सिद्धोंके भो बन्धका प्रसंग आयेगा! मन, वचन, कायकी क्रिया रूप योग भी बन्धका कारण नहीं है। यदि हो तो मन, वचन, कायकी क्रियावाले यथाख्यात संयमियोंके भी बन्धका प्रसंग प्राप्त होगा। सचित्त-अचित्त वस्तुओंका घात भी बन्धका कारण नहीं है |यदि उससे बन्ध हो तो समितिमें तत्पर साधुओंके भी सचित्त अचित्तके घातसे बन्धका प्रसंग आयेगा! अतः यही सिद्ध होता है कि उपयोग भूमिमें रागादिकका करना ही बन्धका कारण है फिर भी व्यवहारमें ऐसा कहा जाता है कि छेदन-भेदनसे बन्ध होता है, या मन, वचन, कायकी क्रियासे बन्ध होता है । परमार्थसे बन्धका कारण रागभाव ही है। इसी तरह परमार्थसे बन्धनसे मुक्तिका कारण भी आत्माका भाव ही है । आत्माके समस्त कर्मबन्धनसे छुटनेका नाम मोक्ष है। अब प्रश्न होता है कि आत्मा और बन्धन दोनों अलग-अलग कैसे हो क्योंकि उसके हए बिना मोक्ष सम्भव नहीं है । इसका उत्तर है कि प्रज्ञारूपी पैनी छेनीके द्वारा आत्मा और कर्मबन्धको पृथक्-पृथक् किये बिना कर्मबन्धनसे छुटकारा नहीं हो सकता । उसके लिए आत्मा और कर्मके स्वरूपको जानना चाहिए। और इनके
१. दो पुण जीवो भ-अ.मु.क. ख. ज.।
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