Book Title: Naychakko
Author(s): Mailldhaval, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 175
________________ नयचक्र -२४८ ] १२५ 'देसंव रज्जदुग्गं मिस्सं अण्णं च भणइ मम दन्वं । उहयत्थे उवयरिओ होइ असन्भूदववहारो ॥२४६॥ दन्यमाश्रित्य युक्तिः फलवतीत्याह जीवादिदम्वणिवहा जे भणिया विविहभावसंजुत्ता। ताण पयासणहेउपमाणणयलक्खणं भणियं ॥२४७॥ अस्तित्वस्वमावस्य युक्त्या प्रधानत्वं तस्मादेव प्रमाणनयविषयं चाह - दव्वाणे सहावाणं अत्थित्तं मुणसु परमसम्भावं । अस्थिसहावा सव्वे अस्थि वि य सव्वभावगयं ॥२४८॥ ___जो देशकी तरह राज्य, दुर्ग आदि अन्य मिश्र-सजातिविजाति द्रव्योंको अपना कहता है उसका यह कथन सजाति विजाति उपचरित असत्भूतव्यवहार नय है ॥२४६।। विशेषार्थ-देश, राज्य, दुर्ग आदि जोव और अजीवोंके समुदाय रूप हैं ; क्योंकि उनमें जड़ और चेतन दोनोंका आवास होता है। उनको अपना कहना सजाति विजाति उपचरित असद्भूत व्यवहार नय है। चेतन सजाति है और जड़ विजाति ई। अन्यत्र प्रसिद्ध धर्मका अन्यत्र आरोप करना असद्भुतव्यवहार है। अतः असद्भूतव्यवहार स्वयं उपचार रूप है और उपचारका भी उपचार करना उपचरितासभूतव्यवहार है। इसके नौ भेद पहले बतला आये हैं-द्रव्यमें द्रव्यका उपचार, पर्यायमें पर्यायका उपचार आदि । हमारा शरीर पोद्गलिक है, उसे व्यवहारसे जीव कहा जाता है। फिर उसका जिन अन्य सचेतन, अचेतन और सचेतनअचेतन वस्तुओंके साथ स्वामित्वका, या भोज्य भोजक आदि रूप सम्बन्ध है, उस सम्बन्धके आधारपर उन्हें अपना कहना उपचारका भी उपचार है। अतः ऊपरके दृष्टान्त उपचरित असद्भुतव्यवहार नयके अन्तर्गत जानना चाहिए। आगे कहते हैं कि द्रव्यके आश्रयसे युक्ति फलवती होती है जो अनेक प्रकारके भावोंसे संयुक्त जीवादि द्रव्योंका समूह आगममें कहा है, उनके प्रकाशन के लिए प्रमाण और नयका लक्षण कहा है ॥२४७।। विशेषार्थ-प्रमाण और नयका स्वरूप द्रव्योंके और उनके भावोंके यथार्थ ज्ञानके लिए कहा गया है। उनके बिना वस्तुस्वरूपका ठीक-ठीक ज्ञान होना सम्भव नहीं है। अतः जो द्रव्योंको और उनके विविध भावोंको जानना चाहते हैं उन्हें प्रमाण और नयका स्वरूप जानना चाहिए । ___ आगे कहते हैं कि वस्तुके स्वभावोंमें अस्तित्व स्वभाव ही प्रधान है और वही प्रमाण और नयका विषय है द्रव्योंके स्वभावोंमें अस्तित्वको ही परम स्वभाव जानना चाहिए। सभी द्रव्य अस्ति स्वभाव हैं और अस्ति स्वभाव समस्त भावोंमें पाया जाता है ॥२४८॥ विशेषार्थ-द्रव्यों में अनेक स्वभाव या धर्म होते हैं, किन्तु उनमेंसे एक अस्तित्व धर्म ही ऐसा है जो सबमें प्रधान है और सब विचारोंका मूल है । ऐसा कोई पदार्थ नहीं जो सत् न हो। अस्तित्व सबमें पाया जाता है । सबसे प्रथम किसी भी वस्तुके अस्तित्वका ही विचार किया जाता है।जब उसका अस्तित्व निश्चित १. देसट्ठ अ० क०, देसत्थ मु. । 'उपचरितासद्भूतव्यवहारस्त्रेधा-स्वजात्युपचरितासद्भूतव्यवहारो यथापुत्रदारादि मम । विजात्युपचरितासद्भूतव्यवहारो यथा-वस्त्राभरणहेमरत्नादि मम । स्वजातिविजात्युपचरितासद्भूतव्यवहारो यथा-देशराज्यदुर्गादि मम । इत्युपचरितासद्भूतव्यवहारस्त्रेधा।' आलापप० । २. दवण्णंपि सहावा ख० ज० । ३. अत्थित्तं स-मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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