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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
[गा० १८८
दव्वत्थिएसु दवं पज्जायं पज्जयथिए विसयं । सबभूवासभूवै उवयरियं चदु णव तियत्थं ॥१८॥ पज्जय' गउणं किच्चा दव्वंपि य जो हु गिलइ लोए। सो दवस्थिय भणिओ विवरीओ पज्जयत्यिणओ ॥१८९।। कम्माणं मज्झगदं जीवं जो गहइ सिद्धसंकासं । भण्णइ सो सुद्धणओ खलु कम्मोवाहिणिरवेक्खो॥१९०॥
की चर्चा अमृतचन्द्रके ग्रन्थों में नहीं है। देवसेन और अमृतचन्द्र लगभग समकालीन थे। देवसेनसे पहले उपनयोंकी चर्चा हमारे देखने में नहीं आयी। जयसेनाचार्यने जो देवसेनके पश्चात हए हैं अपनी टीकाओंमें उपनयोंको चर्चा की है।
आगे नयोंका विषय कहते हैं
द्रव्याथिक नयोंका विषय द्रव्य है और पर्यायाथिक नयोंका विषय पर्याय है। सद्भूत व्यवहारनयके अर्थ चार हैं, असद्भूत व्यवहारनयके अर्थ नौ हैं और उपचरितनयके अर्थ तीन हैं ॥१८८॥
विशेषार्थ-इन सबका कथन ग्रन्थकारने आगे स्वयं किया है। द्रव्याथिक और पर्यायाथिकनयोंका विषय कहते हैं
जो पर्यायको गौण करके द्रव्यको ग्रहण करता है उसे द्रव्याथिकनय कहते हैं और जो द्रव्यको गौण करके पर्यायको ग्रहण करता है उसे पर्यायार्थिकनय कहते हैं ॥१८९॥
विशेषार्थ-वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक या सामान्य विशेषात्मक है । द्रव्य और पर्यायको या सामान्य और विशेषको देखनेवाली दो आँखें हैं-द्रव्याथिक और पर्यायाथिक । पर्यायाथिक दृष्टिको सर्वथा बन्द करके जब केवल द्रव्यार्थिक दृष्टि से देखते हैं तो नारक, तिर्यच, मनुष्य, देव और सिद्धत्व पर्यायरूप विशेषोंमें व्यवस्थित एक जीव सामान्यके हो दर्शन होनेसे सब जीवद्रव्यरूप हो प्रतिभासित होता है। और जब द्रव्यार्थिक दृष्टिको सर्वथा बन्द करके केवल पर्यायार्थिक दृष्टिसे देखते हैं तो जीवद्रव्यमें व्यवस्थित नारक, तियंच, मनुष्य, देव, सिद्धत्व पर्यायोंके पृथक्-पृथक् दर्शन होते हैं। और जब द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दृष्टियों को एक साथ खोलकर देखते हैं तो नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव और सिद्धत्व पर्यायोंमें व्यवस्थित जीवद्रव्य और जीवद्रव्यमें व्यवस्थित नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव और सिद्धत्व पर्याय एक साथ दिखाई देती हैं। अतः एक दृष्टिसे देखना एक देशको देखना है और दोनों दृष्टियोंसे देखना सब वस्तुको देखना है। इस तरह वस्तुको देखनेकी यह दो दृष्टियाँ हैं । उन्हींका नाम द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक है ।
आगे द्रव्याथिकनयके दस भेदों में से कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनयका लक्षण कहते हैं
जो कर्मोके मध्य में स्थित अर्थात् कर्मोंसे लिप्त जीवको सिद्धोंके समान शुद्ध ग्रहण करता है उसे कर्मोपाधि निरपेक्ष शद्ध द्रव्याथिकनय कहते हैं ॥१९०।।
विशेषार्थ-संसारी जीवके साथ कर्मको उपाधि लगी हुई है।अतः वह वास्तव में तो वर्तमान दशामें सिद्धोंके समान शुद्ध नहीं है। किन्तु द्रव्यरूपसे तो संसारी भी वैसा ही है जैसा सिद्ध जीव है, उस रूपकी प्रतीति करानेवाला नय कर्मोपाधि निरपेक्ष द्रव्यार्थिक नय है। इसे ही अध्यात्ममें शुद्धनय या निश्चयनय कहते हैं। यह नय शुद्धद्रव्यका दर्शक होनेसे परमार्थ में उपयोगी है। इसके द्वारा शद्ध आत्माकी प्रतीति करके ही उसे प्राप्त करनेकी चेष्टा की जाती है।
विश
१. 'द्रव्यमस्तीति मतिरस्य द्रव्यभवनमेव नातोऽन्ये भावविकाराः, नाप्यभावः तद्वयतिरेकेणानुपलब्धेरिति द्रव्यास्तिकः । पर्याय एवास्ति इति मतिरस्य जन्मादिभावविकारमेव भवनं न ततोऽन्यद् द्रव्यमस्ति तद्वयतिरेकेणानुपलब्धेरिति पर्यायास्तिकः ।'-तत्त्वार्थवा०, ११३३ ।
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