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नयचक्र
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जं जं करेइ कम्मं देही मणवयणकायचेट्ठादो। तं तं खु णामजुत्तो एवंभूदो हवे स णओ ॥२१५॥ पढमतिया दव्वत्थी पज्जयगाही य इयर जे भणिया। ते चदु अत्यपहाणा सद्दपहाणा हु तिणियरा ॥२१६॥ पण्णवण भाविभूदे अत्थे इच्छवि य वट्टणं जो सो। सव्वेसि च णयाणं उरि खलु संपलोइज्जा ॥२१७॥ पण्णवण भाविभूदे अत्थे जो सो हु भेदपज्जाओ। अह तं एवंभूदो संभवदो मुणह अत्थेसु ॥२१८॥
अर्थ होते हैं, किन्तु वह सबको छोड़कर 'गाय' के अर्थ में रूढ़ है। यह शब्दको अर्थारूढ़ माननेका उदाहरण है। दूसरा-शब्द-भेदसे अर्थका भेद माननेवाला समभिरूढ़ नय है। जैसे इन्द्र, शक्र और पुरन्दर ये तीनों शब्द स्वर्गके स्वामी इन्द्रके वाचक हैं और एक ही लिंगके हैं, किन्तु समभिरूढ़ नयके अनुसार ये तीनों शब्द इन्द्रके भिन्न-भिन्न धर्मोको कहते हैं । वह आनन्द करता है इसलिए उसे इन्द्र कहते है, शक्तिशाली होनेसे शक्र और नगरोंको उजाड़नेवाला होनेसे पुरन्दर कहा जाता है। इस तरह जो नय शब्दभेदसे अर्थभेद मानता है वह समभिरूढ़नय है।
आगे एवंभूतनयका स्वरूप कहते हैं
प्राणी मन, वचन और कायकी चेष्टासे जो-जो क्रिया करता है उस-उस नामसे युक्त होता है-यह एवंभूतनयका मन्तव्य जानना चाहिए ॥२१५॥
विशेषार्थ-जिस शब्दका अर्थ जिस क्रियारूप हो उस क्रियारूप परिणमे पदार्थको ही ग्रहण करनेवाला एवंभूतनय है। जैसे, इन्द्र शब्दका अर्थ आनन्द करना है। अतः जिस समय स्वर्गका स्वामी आनन्द करता हो उसी समय उसे इन्द्र कहना चाहिए, जब पूजन करता हो तो पूजक कहना चाहिए। यह एवंभूतनयका मन्तव्य है।
उक्त नैगमादिनयोंमें द्रव्याथिक और पर्यायार्थिकका तथा शब्दनय और अर्थनयका भेद करते हैं
पहलेके तीन नय द्रव्याथिक हैं, बाकीके नय पर्यायको ग्रहण करते हैं। प्रारम्भके चार नय अर्थप्रधान हैं और शेष तीन नय शब्दप्रधान हैं ॥२१६।।
विशेषार्थ-जो द्रव्यको मुख्यता से वस्तुको ग्रहण करता है वह द्रव्यार्थिक नय है।अतः नैगम, संग्रह और व्यवहारनय द्रव्याथिकनय है। जो पर्यायको प्रधानतासे अर्थको ग्रहण करता है वह पर्यायाधिक न ऋजसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत पर्यायाथिक नय हैं। नयके ये भेद द्रव्यपर्यायात्मक वस्तुके एक-एक अंश द्रव्य और पर्यायको लेकर किये गये हैं। इसी तरह अर्थ ( पदार्थ ) और शब्दकी प्रधानतासे भी नयके दो भेद है-अर्थनय और शब्दनय । अर्थप्रधान नयोंको अर्थनय कहते हैं। आरम्भके चार नय अर्थप्रधान होनेसे अर्थनय है । शेष तीन शब्द, सममिरूढ़ और एवंभूत शब्दको प्रधानतासे पदार्थका ग्रहण करते हैं जैसा उनके लक्षणोंसे स्पष्ट है जो पहले कह आये हैं, अतः वे शब्द नय हैं।
१. तिण्णिणया क० । 'चत्वारोऽर्थनया ह्येते जीवाद्यर्थव्यपाश्रयात् । त्रयः शब्दनयाः सत्यपदविद्यां समाश्रिताः॥' -लघीय. का.७२ । 'द्रव्यार्थो व्यवहारान्तः पर्यायार्थस्ततो परः।'..'तत्रर्जुसूत्रपर्यन्ताश्चत्वारोऽर्थनया मताः । त्रयः शब्दनयाः शेषाः शब्दवाच्यार्थगोचराः ।। --तत्वाथश्लो. पृ. २६५, २०४। 'द्रव्याथिकप्रविभागाद्धि नैगमसंग्रहववहाराः पर्यायाथिकप्रविभागादृजुसूत्रादयः । तत्र ऋजुसूत्रपर्यन्ताश्चत्वारोऽर्थनयाः, तेषामर्थप्रधानत्वात् । शेषास्त्रयः शब्दनयाः शब्दप्रधानत्वात् ।--अष्टस० पृ० २८७ । २. एषा गाथा आ प्रतो नास्ति ।
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