________________
-२२६ ]
नयचक्र
११७
अण्णेसि अण्णगुणा भणइ असब्भूय तिविह भेदोवि । सज्जाइ इयर मिस्सो णायव्वो तिविहभेदजुदो ॥२२२॥ दव्वगुणपज्जयाणं उवयारं ताण होइ तत्थेव । दवे गुणपज्जाया 'गुणववियं पज्जया णेया ॥२२३।। पज्जाए दव्वगुणा उवयरियं वा हु बंधसंजुत्ता। 'संबंधे संसिलेसे णाणीणं णेयमादीहिं ॥२२४॥ विजातीय द्रव्ये विजातीयव्यावरोपणा असद्भूतव्यवहारःएयंदियाइदेहा णिवत्ता जे वि पॉउंगले काए।
ते जो भणेइ जीवा ववहारो सो विजाईओ ॥२२५।। विजातिगुणे विजातिगुणावरोपणोऽसद्भूतव्यवहारः
*मुत्तं इह मइणाणं मुत्तिमवव्वेण जण्णिओ जह्मा।
जइ णहु मुत्तं गाणं तो किं खलिओ हु मुत्तेण ॥२२६॥ बड़ा जैसा शरीर प्राप्त होता है उसी में व्याप्त होकर रह जाता है । बड़ा शरीर मिलने पर उसी जीव के प्रदेश फैल जाते हैं और छोटा शरीर मिलने पर संकुचित हो जाते हैं। किन्तु ऐसा होनेसे उसकी अवगाहना तो घटती-बढ़ती है,परन्तु प्रदेश नहीं घटते-बढ़ते । जैसे रबड़को तानने पर वह फैल जाती है, फिर सकुच जाती है किन्तु रबड़के प्रदेश उतने ही रहते हैं। इस तरह जीव असंख्यात प्रदेशी है, किन्तु प्रदेश भेद होते हुए भी जीव तो एक अखण्ड ही है। अतः भेद कल्पना निरपेक्ष शुद्ध निश्चयनयसे जीव एकप्रदेशी है । और भेद कल्पना सापेक्ष सद्भूत व्यवहार नयसे बहुप्रदेशो है। इस प्रकार नयभेदसे उक्त कथनभेदका समन्वय कर लेना चाहिए।
आगे असद्भूत व्यवहारनयका लक्षण और भेद कहते हैं
जो अन्यके गुणोंको अन्यका कहता है वह असद्भूत व्यवहारनय है। उसके तीन भेद हैंसजाति, विजाति और मिश्रातथा उनमें से भी प्रत्येकके तीन-तीन भेद हैं ॥२२२॥
द्रव्यमें द्रव्यका, गुणमें गुणका, पर्याय में पर्यायका, द्रव्यमें गुण और पर्यायका गुणमें द्रव्य और पर्यायका और पर्यायमें द्रव्य और गुणका उपचार करना चाहिए। यह उपचार बन्धसे संयुक्त अवस्था में तथा ज्ञानीका ज्ञेय आदिके साथ सम्बन्ध होने पर किया जाता है ॥२२३-२२४॥
आगे विजातीय द्रव्य में विजातीय द्रव्यका आरोपण रूप असदभत व्यवहारनयका कथन करते हैं
पोद्गलिक कायमें जो एकेन्द्रिय आदिके शरीर बनते हैं उन्हें जो जीव कहता है वह विजातीय असद्भूत व्यवहारनय है ॥२२५॥
विशेषार्थ-शरीर पोद्गलिक है-पुद्गल परमाणुओंसे बना है। उसमें जीवका निवास होनेसे तथा जीवके साथ ही उसका जन्म होनेसे लोग उसे जीव कहते हैं। किन्तु यथार्थमें तो शरीर जीव नहीं है, जीवसे भिन्न द्रव्य है। जीव द्रव्य चेतन ज्ञानवान है और शरीर जड़ है, रूप रस गन्ध स्पर्श गुणवाला है। अतः विजातीय द्रव्य शरीर में विजातीय द्रव्य जीवका आरोप करनेवाला नय विजातीय असद्भूत व्यवहारनय है।
आगे विजातीय गुणमें विजातीय गुणका आरोप करनेवाले असद्भूत व्यवहारनयका स्वरूप कहते है
मतिज्ञान मूर्तिक है, क्योंकि मूर्तिक द्रव्यसे पैदा होता है। यदि मतिज्ञान मूर्त न होता तो मूर्तके द्वारा वह स्खलित क्यों होता १।२२६॥ १. गुणे दविया पज्जया अ० क० । गुणदविया ख० । २. 'संबंधो संसिलेसो णाणीणं णाणणेयमादीहिंअ० क० ख० मु० । ३. "विजात्यसद्भूतव्यवहारो यथा मूत मतिज्ञानं यतो मूर्तद्रव्येण जनितम् ।'-आलाप० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org