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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
'भेए सादि संबंधं गुणगुणियाईहिं कुणइ जो दव्वे | सो वि असुद्ध दिट्ठो सहिओ सो भेयकप्पेण ॥ १९५॥ णिस्सेससहावाणं अण्ण यरूवेण सव्वद वह । विवहावं हि जो सो अण्णयदव्वत्थिओ भणिओ ॥ १९६ ॥ सव्वादिचउक्के संतं दव्वं खु गेण्हए जो हु ।
यिदत्वादिसु गाही सो इयरो होइ विवरीओ ॥१९७॥
अब भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नयका लक्षण कहते हैं
जो नय द्रव्य में गुण-गुणी आदिका भेद करके उनके साथ सम्बन्ध कराता है वह भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है, क्योंकि वह भेद कल्पना से सहित है ॥ १९५ ॥
विशेषार्थ- - द्रव्य और गुण अभिन्न हैं। उनकी स्वतंत्र सत्ता नहीं है । अर्थात् जैसे घड़े में जल रहता है, वैसे द्रव्यमें गुण नहीं रहते हैं । घड़े और जलके प्रदेश जुदे-जुदे हैं, किन्तु गुण और गुणी द्रव्य के प्रदेश जुदेजुदे नहीं हैं । द्रव्य गुणमय है और गुण द्रव्यमय हैं । न गुणसे भिन्न द्रव्यका अस्तित्व है और न द्रव्यसे free गुणका अस्तित्व है। अतः द्रव्य गुणोंका एक अखण्ड पिण्ड है । यदि कदाचित् द्रव्यमें से सब गुणों को अलग किया जा सके तो द्रव्यके नामपर कुछ भी शेष नहीं बचेगा । ऐसी स्थिति में भी जब हम द्रव्यके स्वरूपका कथन करते है तो गुणोंके द्वारा ही उसका कथन सम्भव होनेसे कहते हैं कि गुणोंका समुदाय द्रव्य है । इससे सुननेवालेको ऐसा भ्रम होता है कि मानो द्रव्यसे गुण जुदे हैं । इसीसे द्रव्याथिक नयको दृष्टिमें ऐसा भेद कथन शुद्ध नहीं है, अशुद्ध है । अतः गुण गुणी आदिमें भेदके ग्राहक द्रव्यार्थिक नयको अशुद्ध कहा है । और अभेदग्राही द्रव्यार्थिक नयको शुद्ध कहा है ।
आगे अन्वय द्रव्याथिक नयका स्वरूप कहते हैं
समस्त स्वभावों में जो यह द्रव्य है इस प्रकार अन्वयरूपसे द्रव्यकी स्थापना करता है वह अन्वय द्रव्यार्थिक नय है ॥१९६॥
विशेषार्थ -- यह द्रव्यस्वभाव प्रकाशक नयचक्र देवसेनके 'नयचक्रको लेकर रचा गया है। इसमें अनेक गाथाएँ देवसेन के 'नयचक्र की भी हैं । अन्वय द्रव्यार्थिकके स्वरूपको बतलानेवाली जो गाथा द्रव्य स्वभाव प्रकाशक नामक इस ग्रन्थ में है उससे उसका अर्थ स्पष्ट नहीं होता, किन्तु नयचक्रमें जो गाया है उससे अर्थ स्पष्ट हो जाता है अतः ऊपरका अर्थ उसी गाथा के आधारसे किया गया है । द्रव्य गुणपर्याय स्वभाव है। और गुण-पर्याय और स्वभाव 'यह द्रव्य है, यह द्रव्य है' ऐसा बोध करानेवाला नय अन्वय द्रव्यार्थिक है । अन्वयका अर्थ है - 'यह यह है' 'यह यह है' इस प्रकारको अनुस्यूत प्रवृत्ति वह जिसका विषय है वह अन्वय द्रव्यार्थिक है ।
में
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[ गा० १९५
आगे स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय और परद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक नयका स्वरूप कहते हैं— जो स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव में वर्तमान द्रव्यको ग्रहण करता है वह स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय है । और जो परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभावमें असत् द्रव्यको ग्रहण करता है वह पर द्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिकनय है ॥१९७॥
विशेषार्थ - प्रत्येक द्रव्य स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावकी अपेक्षा सत् है और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभावकी अपेक्षा असत् है । स्वभावको स्वचतुष्टय कहते हैं । स्वयं द्रव्य तो स्वद्रव्य है, उस
स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और द्रव्यके जो अखण्ड प्रदेश हैं वही
१. 'भेदकल्पना सापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथा आत्मनो दर्शनज्ञानादयो गुणाः ॥ ' - आलाप० । २. विवहावणाव जो ख० । विवहावणाहि ज० मु० । 'अन्वयद्रव्यार्थिको यथा - गुणपर्यायस्वभावं द्रव्यम् ।' -आलाप० । 'णिस्सेससहावा अण्णयरूवेण दव्वदव्वेदि । दव्वठत्रणो हि जो सो अण्णयदव्वत्थि
भणिओ ||२४|| ' -नय
चक्र देवसेन ।
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