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नयचक्र
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उप्पादवयं गउणी किच्चा जो गहइ केवल सत्ता। भण्णइ सो सुद्धणओ इह सत्तागाहओ समए ॥१९१॥ गुणगुणियाइचउक्के अत्थे जो णो करेइ खलु भेयं । सुद्धो सो दव्वत्थो भेयवियप्पेण णिरवेक्खो॥१९२॥ भावे सरायमादो सव्वे जीवामिह जो दु जंपेदि ।
सो हु असुद्धो उत्तो कम्माणउवाहिसावेक्खो ॥१९३॥ उत्पादव्ययसापेक्षाऽशुद्धद्रव्यार्थिकनयं लक्षयति -
उप्पादवयविमिस्सा सत्ता गहिऊण भणइ तिदयत्त । दव्वस्स एयसमए जो सो हु असुद्धओ विदिओ ॥१९४॥
आगे सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्याथिक नयका लक्षण कहते हैं
उत्पाद और व्ययको गौण करके जो केवल सत्ताको ग्रहण करता है उसे आगममें सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्याथिकनय कहते हैं ॥१९१॥
विशेषार्थ-सत् द्रव्यका लक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य है । उसमें-से उत्पाद-व्यय तो पर्यायरूप होनेसे पर्यायाथिक नयके विषय है, अत उन्हें गौण करके सत्ता मात्रको ग्रहण करनेवाला नय सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्याथिक नय है।
आगे भेदविकल्प निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नयका लक्षण कहते हैं
गुण-गुणी आदि चतुष्करूप अर्थमें जो भेद नहीं करता, वह भेदविकल्पनिरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है ॥१९२॥
विशेषार्थ-गुण और गुणी में, स्वभाव और स्वभाववान्में, पर्याय और पर्यायीमें या धर्म और धर्मीमें जो भेद न करके अभेद रूपसे ग्रहण करता है वह भेद कल्पना निरपेक्ष शुद्ध द्रव्याथिक नय है। जैसे द्रव्य अपने गुणों, पर्यायों और स्वभावोंसे अभिन्न है ।
आगे कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिक नयका लक्षण कहते है
जो सब रागादिभावोंको जीवका कहता है या रागादिभावोंको जोव कहता है वह कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिक नय है ॥१९३॥
विशेषार्थ-राग, द्वेष आदि भाव होते तो जीवमें ही हैं, किन्तु कर्मजन्य हैं, शुद्ध जीवमें ये भाव कदापि नहीं होते। इन भावोंको जीव कहना कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिक नय है। कर्मको उपाधिकी इसमें अपेक्षा है, इसलिए यह कर्मोपाधि सापेक्ष है और अशुद्ध द्रव्यको विषय करनेसे इसका नाम अशुद्ध द्रव्याथिक है।
उत्पाद व्ययसापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नयका लक्षण कहते हैं
जो नय उत्पाद व्ययके साथ मिली हुई सत्ताको ग्रहण करके द्रव्यको एक समय में उत्पाद -व्यय-ध्रौव्यरूप कहता है वह अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है ।।१९४।।
विशेषार्थ-द्रव्याथिक नयमें अशुद्धताके कारण दो हैं-एक तो यदि वह जीवके कर्मजन्य अशुद्ध भावोंको जीवका कहता है तो वह अशुद्धताका ग्राहक होनेसे अशुद्ध कहा जाता है।दूसरे, अख वह भेद बुद्धि करता है तो वह अशुद्ध कहा जाता है, क्योंकि द्रव्याथिकको दृष्टिमें अभेद शुद्ध है और भेद अशुद्ध है । तथा पर्यायाथिक नयको दृष्टिमें भेद शुद्ध है, अभेद अशुद्ध है। इस तरह इन दोनों मूल नयोंकी शुद्धि और अशुद्धिसे अनेक भेद होते हैं उन्हींका यह कथन है ।। १. 'भावसु रायमादो सव्वे जीवंमि जो दु जंपेदि ।'-नयचक्र गा० २१ । २. कम्माणो वा हि-क. मु० । ज। 'कर्मोपाधिसापेक्षोऽशुद्धद्रव्याथिको यथा क्रोधादिकर्मजभाव आत्मा।'-आलापप० । ३. 'उत्पादव्ययसापेक्षोऽशुद्धद्रव्याथिको यथैकस्मिन् समये द्रव्यमुत्पादव्ययध्रौव्यात्मकम् ।'-आलापप० ।
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