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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
णिच्छयववहारणया मूलिमभेया णयाण सव्वाणं । णिच्छय साहणहेउ पज्जयदव्वत्थियं मुणह ॥ १८२ ॥
पिता भी है और पुत्र भी है। जब उसका पिता उसे पुत्र कहकर पुकारता है तो पुत्रविवक्षा मुख्य और पितृ विवक्षा गौण 'जाती है और जब उसका पुत्र उसे पिता कहकर पुकारता है तो पिता विवक्षा मुख्य और पितृविवक्षा गौण हो जाती है । उसी तरह द्रव्यार्थिक नयसे एक जीवद्रव्यकी नित्यताको विवक्षाके समय पर्यायरूपसे अनित्यता गौण हो जाती है और पर्यायरूपसे अनित्यताकी विवक्षाके समय द्रव्यरूपसे नित्यता गोण हो जाती है, क्योंकि जिस समय जिस धर्मकी विवक्षा ( कहने की इच्छा ) होती है वह धर्मं उस समय मुख्य हो जाता है । तथा यह जीव संसार अवस्था में मिथ्यात्व, रागादि विभाव परिणामवश व्यवहार नयसे अशुद्ध है और शुद्ध द्रव्यार्थिक नयसे अभ्यन्तर में वर्तमान अपने गुणोंसे शुद्ध है । पंचास्तिकाय गाथा २७ में जीवके स्वरूपका कथन नयदृष्टिसे इस प्रकार किया है--शुद्ध निश्चय नयसे विशुद्ध दर्शन, ज्ञान स्वभाव शुद्ध चैतन्यरूप प्राणसे जो जीता है वह जीव है । और व्यवहार नयसे कर्मके उदयसे उत्पन्न हुए द्रव्यभावरूप प्राणोंसे जो जीता है वह जीव है । जीवद्रव्य अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनयसे मूर्त है, किन्तु शुद्ध निश्चय नयसे अमूर्त है । द्रव्यार्थिक नयसे नित्य है, पर्यायकी अपेक्षा अनित्य है । शुद्ध द्रव्यार्थिक नयसे जीव पुण्य-पाप घट-पट आदिका अकर्ता है । किन्तु अशुद्ध निश्चय नयसे शुभोपयोग और अशुभोपयोगते परिणत होनेपर पुण्य-पापका कर्ता और उनके फलका भोक्ता है । इस तरह जिनागममें प्रत्येक तत्त्वका विवेचन जिस नयदृष्टिसे किया गया है उसको जाने बिना तत्त्वोंका यथार्थ ज्ञान नहीं हो सकता और तत्त्वोंके यथार्थ ज्ञानके बिना सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं हो सकती । इसलिए नयदृष्टिको समझना अत्यन्त आवश्यक है ।
[ गा० १८२
आगे नयोंके मूल भेदों को कहते हैं-
निश्चयनय और व्यवहारनय सब नयोंके मूल भेद हैं । निश्चयके साधनमें कारण पर्यायार्थिक और द्रव्यार्थिक जानो ॥ १८२ ॥
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विशेषार्थ - नयके भेदोंका कथन दो रोतिसे पाया जाता है । सिद्धान्त ग्रन्थों में नयके दो मूल भेद किये गये हैं- द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक तथा उनके नैगम आदि सात भेद किये गये हैं । किन्तु अध्यात्म ग्रन्थोंमें निश्चय और व्यवहार भेद पाये जाते हैं । कुन्दकुन्दाचार्यंने अपने प्रवचनसार ' ( २ - २२ ) में तो द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयोंकी दृष्टिसे विवेचन किया है । किन्तु समयसार में सात तत्त्वों का विवेचन निश्चयनय और व्यवहार नयसे किया है । 'प्रवचनसार में उन्होंने कहा है- द्रव्यार्थिक नयसे सब द्रव्य अनन्य है और पर्यायार्थिक नयसे अन्यरूप है । किन्तु आगे उसी 'प्रवचनसार' ( २।९७ ) में उन्होंने कहा है- निश्चनयसे यह बन्धका स्वरूप अर्हन्तदेवने कहा है, व्यवहार नयका कथन इससे भिन्न है । इस गाथाकी टीका में अमृतचन्द्रजी महाराजने निश्चयनयको शुद्ध द्रव्यका निरूपक और व्यवहारनयको अशुद्ध द्रव्यका निरूपक कहा है। छह द्रव्योंमें जीव और पुद्गल ये दो ही द्रव्य ऐसे हैं जो अशुद्ध होते हैं । अतः निश्चयनय और व्यवहारनयकी उपयोगिता इन्हीं दोनोंके विवेचन में मुख्य रूपसे है । और द्रव्याथिक, पर्यायार्थिक तो वस्तुमात्रके लिए उपयोगी हैं। उनका मुख्य उद्देश्य वस्तुस्वरूपका विश्लेषण है । इसीसे सिद्धान्त शास्त्रों में सर्वत्र उन्हीं का कथन मिलता है । किन्तु अध्यात्मका वस्तु - विश्लेषण आत्मपरक होनेसे आत्माकी शुद्धता और अशुद्धता के विवेचक निश्चय और व्यवहारकी ही वहाँ तूती बोलती है । यद्यपि उत्तरकालमें शुद्ध द्रव्यार्थिक रूपसे निश्चयका कथन मिलता है । किन्तु कुन्दकुन्द और अमृतचन्द्रजीने इस प्रकारका निर्देश नहीं किया । निश्चय और व्यवहारके भेद भी उत्तरकालके ग्रन्थों में ही देखे जाते हैं । कुन्दकुन्द स्वामी के ग्रन्थोंमें और अमृतचन्द्रजीको टीकामें उनका निर्देश नहीं है । ऊपर जो द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिकको निश्चय के साधन में हेतु कहा है वह विशेष रूपसे ध्यान देने योग्य है । द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयोंके द्वारा वस्तु तत्त्वको जानने के बाद ही निश्चय दृष्टिसे आत्माके शुद्ध स्वरूपको जानकर उसकी प्राप्तिका प्रयत्न किया जाता है । अतः ये
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