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नयचक्र
वर्ण, शुक्लवर्ण और हरित वर्ण नामकर्म । जिस कर्मके उदयसे शरीरमें गन्धकी उत्पत्ति होती है वह गन्ध नामकर्म है । वह दो प्रकारका है-सुगन्ध और दुर्गन्ध नामकर्म । जिस कर्मके उदयसे शरीरमें रसकी निष्पत्ति होती है वह रस नामकर्म है। वह पांच प्रकारका है-तिक्त, कटक, कषाय, आम्ल और मधुर नामकर्म । जिस कर्मके उदयसे शरीरमें स्पर्शकी उत्पत्ति होती है, वह स्पर्श नामकर्म है। वह आठ प्रकारका है-कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, स्निग्ध, रूक्ष, शीत और उष्ण नामकर्म। जिस जीवने पूर्व शरीरको तो छोड़ दिया है, किन्तु उत्तर शरीरको अभी ग्रहण नहीं किया है,उसके आत्म प्रदेशोंकी रचनापरिपाटी जिस कर्मके उदयसे होती है, वह आनुपूर्वी नामकर्म है । वह चार प्रकारका है-नरक गति प्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यञ्चगति प्रायोग्यानुपूर्वी, मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी और देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म । जिस कर्मके उदयसे जीवका शरीर न अति गुरु और न अति लघु होता है वह अगुरुलघु नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे शरीर अपनेको ही पीड़ाकारी होता
वह उपघात नामकर्म है। जैसे लम्बे सींग आदिका होना। जिस कर्मके उदयसे शरीर दूसरोंको पीड़ा करनेवाला होता है, वह परघात नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे उच्छ्वास और निःश्वासकी उत्पत्ति होती है,वह उच्छ्वास नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे शरीरमें आताप होता है,वह आताप नामकर्म है। उष्णता सहित प्रभाका नाम आताप है। जिस कर्मके उदयसे शरीरमें उद्योत होता है, वह उद्योत नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे भूमिका आश्रय लेकर या बिना उसका आश्रय लिये भी जीवोंका आकाशमें गमन होता है,वह विहायोगति नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे जीवोंके स्थावरपना होता है, वह स्थावर नामकर्म है। जल, अग्नि और वायुकायिक जीवोंमें जो संचरण देखा जाता है, उससे उन्हें त्रस नहीं समझ लेना चाहिए क्योंकि उनका गमनरूप परिणाम पारिणामिक है। जिस कर्मके उदयसे जीव बादर होते हैं, वह बादर नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे जीव सक्ष्म एकेन्द्रिय होते हैं वह सूक्ष्म नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे जीव पर्याप्त होते है, वह पर्याप्तिनाम कर्म है। जिस कर्मके उदयसे जीव अपर्याप्त होते हैं,वह अपर्याप्ति नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे एक शरीरमें एक ही जीव रहता है, वह प्रत्येक शरीर नामकर्म है। जिस कमके उदयसे अनन्तजीव एक ही शरीरवाले होकर रहते हैं,वह साधारण शरीर नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे शरीर में रसादिक धातुओंका अपने रूपमें कितने ही काल तक अवस्थान होता है, वह स्थिर नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे रसादिकका आगेकी धातुरूपसे परिणाम होता है, वह अस्थिर नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे चक्रवर्तित्व, बलदेवत्व और वासुदेवत्व आदि ऋद्धियों के सूचक शंख, कमल आदि चिह्न अंग-प्रत्यंगोंमें हों, वह शुभ नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे अशुभ । , वह अशुभ नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे जीवके सौभाग्य होता है, वह सुभग नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे जीवके दौर्भाग्य होता है,वह दुर्भगनामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे कानोंको प्रिय लगनेवाला स्वर हो, वह सुस्वर नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे कर्णकट स्वर हो,वह दुःस्वर नामकर्म है । जिस कर्मके उदय से शरीर प्रभायुक्त हो,बह आदेय नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे शरीर प्रभाहीन हो या अच्छा कार्य करनेपर भी जीवको गौरव प्राप्त न हो, वह अनादेय नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे लोकमें यश हो,वह यशःकीर्ति नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे अयश हो,वह अयशःकोति नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे अंग और उपांगका स्थान और प्रमाण अपनी-अपनी जातिके अनुसार नियमित हो, वह निर्माण नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे जीव पांच महाकल्याणकों को प्राप्त करके तीर्थका प्रवर्तन करता है,वह तीर्थङ्कर नामकर्म है। गोत्र कर्मकी दो प्रकृतियां हैं-उच्चगोत्र और नीचगोत्र । जिनका दीक्षायोग्य साधु आचार है, साधु आचारवालोंके साथ जिन्होंने सम्बन्ध स्थापित किया है तथा जो आर्य कहलाते हैं उन पुरुषोंको सन्तानको उच्चगोत्र कहा जाता है। उनमें उत्पत्तिका कारणभूत कर्म भी उच्च गोत्र है। उससे विपरीत कर्म नीचगोत्र है। अन्तरायकर्मको पाँच प्रकृतियाँ हैं-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और लाभान्तराय । रत्नत्रयसे युक्त जीवों के लिए अपने वित्तका त्याग करनेको दान कहते हैं। इच्छित अर्थकी प्राप्ति होना लाभ है। जो एक बार भोगा जाये वह भोग है, जो पुनः पुनः भोगा जाये वह उपभोग है। वीर्यका अर्थ शक्ति है। इनकी प्राप्तिमें विघ्न करनेवाला अन्तराय कर्म है। इस प्रकार आठों कर्मोकी
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