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[ गा० १३५
द्रव्यस्वभावप्रकाशक एयपएसि अमुत्तो अचेयणो वट्टणागुणो कालो। लोयायासपएसे थक्का ते रयणरासिव्व ॥१३५॥ परमत्थो जो कालो सो चिय हेऊ हवेइ परिणामे । पज्जयठिदि उवयरिओ ववहारादो य णायव्वो ॥१३६॥
और अलोकाकाश । जितने आकाशमें सब द्रव्य पाये जाते हैं उतने आकाशको लोकाकाश कहते हैं और उससे बाहरके शुद्ध आकाशको अलोकाकाश कहते हैं। छहों द्रव्योंमें जीव और पुद्गलद्रव्य ही क्रियावान् है, शेष सब निष्क्रिय हैं। यदि गतिमें सहायक धर्मद्रव्य और स्थितिमें सहायक अधर्मद्रव्य न होते तो जीव और पुदगल लोकाकाशके बाहर भी चले जाते और लोक-अलोकका भेद भी मिट जाता। किन्तु लोकसे भिन्न अलोक होना अवश्य चाहिए। जैसे अब्राह्मणसे ब्राह्मणेतर क्षत्रियादिका बोध होता है, अनश्व कहनेसे अश्वसे भिन्न गर्दभका बोध होता है,ऐसे ही अलोकसे भी लोकसे भिन्न कोई होना चाहिए। अतः धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्यका प्रयोजन लोक और अलोकका विभाग भी है।
आगे परमार्थकालका स्वरूप कहते हैं
कालद्रव्य एक प्रदेशी है, अमूर्तिक है, अचेतन है, वर्तनागुणवाला है। कालद्रव्यके वे अणु रत्नोंको राशिकी तरह लोकाकाशके प्रदेशोंपर स्थित हैं ॥१३५॥
विशेषार्थ-कालद्रव्यका लक्षण वर्तना है। जैसे जीवमें चेतना मुख्य गुण है वैसे ही कालद्रव्यका विशेष गण वर्तना है। प्रत्येक द्रव्यमें प्रतिसमय जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप सत्ताका वर्तन हो रहा है, उसीका नाम वर्तना है। यह वर्तना प्रतिक्षण प्रत्येक द्रव्यमें होती रहती है, यह बात अनुमानसे भी सिद्ध है जैसे बटलोईमें पकने के लिए चावल डाले और आधे घण्टेमें पके तो उससे यह मतलब नहीं लेना चाहिए कि २९ मिनिट तक वे चावल वैसे ही रहे और अन्तिम क्षणमें पककर तैयार हो गये। उनमें प्रथम समयसे ही सूक्ष्म पाक बराबर होता रहा है। यदि प्रथम समयमें पाक न हुआ होता तो दूसरे-तोसरे आदि समयोंमें भी नहीं होता और इस तरह पाकका ही अभाव हो जाता। इसी तरह प्रत्येक द्रव्य में प्रतिसमय वर्तना होती रहती है । यह वर्तना द्रव्योंका स्वभाव है। काल उसका मुख्य कारण नहीं है, वह तो निमित्तमात्र है। कालद्रव्य भी धर्म-अधर्म और आकाशद्रव्यकी तरह अचेतन और अमूर्तिक है, किन्तु एक नहीं है। अनेक है। उसे पुद्गलपरमाणुकी तरह अणुरूप माना है। पुद्गलके परमाणु तो परस्परमं बंधकर एक भी हो जाते हैं कालाणु तो रत्नकी तरह एक-एक ही रहते हैं। लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेशपर एक-एक कालाणु सदा स्थित रहता है। जितने लोकाकाशके प्रदेश होते हैं, उतने ही कालाणु हैं। कालको अणुरूप माननेके कई कारण हैं। काल यदि सर्वत्र आकाशकी तरह एक होता तो सर्वत्र परिणमन भी एक-सा ही होता। किन्तु विभिन्न क्षेत्रोंमें विभिन्न प्रकारके कालका परिणमन देखा जाता है। दूसरे, कालका सबसे छोटा अंश समय है। आकाशके एक प्रदेशपर स्थित पुद्गलका अणु मन्दगतिसे चलते हुए उससे लगे दूसरे प्रदेशपर जितनी देरमें पहँचे उतने कालका नाम समय है। यह समय पर्यायरूप समय है, इसे व्यवहारकाल भी कहते हैं। समय जैसा ही सूक्ष्म कालाणु निश्चयकालद्रव्य है। निश्चयकालद्रव्य के अणुरूप हुए बिना उसकी समयरूप सूक्ष्म पर्याय सम्भव नहीं है । इसलिए भी कालद्रव्यको अणुरूप माना है ।
आगे परमार्थकालका प्रयोजन कहते हैं
यह जो परमार्थ या निश्चयकाल है वह परिणामका कारण है। पर्यायकी स्थिति उपचरितकाल है और वह व्यवहारसे जाननी चाहिए ॥१३६।।
१. 'लोगागासपदेसे एक्केक्के जे ट्ठिया हु एक्केक्का। रयणाणं रासी इव ते कालाणू मुणेयन्वा ॥५८८॥'
-गो. जीव० । २. 'कालो परिणामभवो परिणामो दव्वकालसंभूतो। दोण्हं एस सहावो कालो खणभंगुरो णियदो ॥१०॥' -पञ्चास्ति। ३. परिणामो अ० आ० ख० मु० ज०।
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