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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
[ गा० १३९समयकालप्रदेशसिद्धयर्थमाह
णहएयपएसत्थो परमाणू मंदगइपवदंतो। बीयमणंतरखेत्तं जावदियं जादि तं समयकालं ॥१३९॥ 'जेत्तियमेत खेत अणुणा रुद्धं खु गयणदव्वस्स।
तं च पएसं भणियं जाण तुमं सव्वदरसीहिं ॥१४०॥ गगनादीनां द्रव्यपर्याययोः कारणमुक्त्वा लोकस्य कार्यत्वं प्रतिष्ठापयति
गयणं दुविहायारं धम्माधम्मं च लोगदो णेयं । विविहा पोग्गलजीवा कालं परमाणुमिव भणियं ॥१४॥ सव्वेसि पज्जाया लोगे अवलोइया हु णाणीहि ।
तह्मा लोयं कज्जं कारणभूदाणि दव्वाणि ॥१४२॥ आकाशके एक प्रदेशमें स्थित पुद्गल परमाणु मन्दगतिसे चलता हुआ जितने कालमें अपने अनन्तरवर्ती प्रदेशमें जाता है उसे समय कहते हैं ॥१३९॥
आगे प्रसंगवश प्रदेशका परिमाण बतलाते हैं
आकाशके जितने क्षेत्रको पुद्गलका परमाणु रोकता है अर्थात् पुद्गलका एक परमाणु आकाशके जितने क्षेत्रमें रहे उतने क्षेत्रको सर्वज्ञदेवने प्रदेश कहा है,ऐसा तुम जानो ॥१४०।।
आकाश आदिके द्रव्य और पर्यायके कारणको बतलाकर आगे लोकका कार्यपना सिद्ध करते हैं
आकाशद्रव्यके दो प्रकार हैं-एक लोकाकाश और दूसरा अलोकाकाश । लोकमें धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य, अनेक प्रकारके पुद्गल और अनेक प्रकारके जीव रहते हैं। कालद्रव्यको परमाणुकी तरह अणुरूप कहा है। ज्ञानी सर्वज्ञदेवने सब द्रव्योंकी पर्यायोंको लोकमें देखा है, इसलिए लोककार्य है और द्रव्य कारणरूप हैं ॥१४१-१४२॥
विशेषार्थ-यह पहले भी कहा है कि धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य, लोक और अलोककी स्थिति में निमित्त हैं तथा आकाशके दो विभाग हैं-एक विभागका नाम लोकाकाश है और उसमें सब द्रव्योंका निवास है। 'लोक' शब्द संस्कृतकी 'लुक्' धातुसे बना है। उसका अर्थ देखना होता है । अकलंक देवने अपने 'तत्त्वार्थवार्तिकमें इस लोक शब्दको व्युत्पत्ति अनेक प्रकारसे की है और उसमें दोषोंका परिमार्जन किया है। जहाँ पुण्य और पापकर्मोंका सुखदुःखरूप फल देखा जाता है वह लोक है। अथवा जो पदार्थोंको देखे वह लोक, इन दोनों व्युत्पत्तियोंमें लोकका अर्थ हुआ-आत्मा। अतः सर्वज्ञके द्वारा जो देखा जाये वह लोक व्युत्पत्तिसे पूर्वोक्त दोषका परिहार हो जाता है, क्योंकि केवल एक जीवद्रव्यका नाम लोक नहीं है, किन्तु छहों द्रव्योंके समुदायका नाम लोक है। और सर्वज्ञ सब द्रव्योंको जानते, देखते हैं। किन्तु फिर भी एक दोष रह ही गया । सर्वज्ञ तो लोककी तरह अलोकको भी देखते हैं, अतः अलोक भी लोक कहलायेगा। तब उसमें यह संशोधन किया गया-जहाँ बैठकर सर्वज्ञ जिसे देख वह लोक है। इसमें कोई दोष नहीं है क्योंकि
में बैठकर अलोकको नहीं देखता। इस ग्रन्थ के रचयिताने अकलंकदेवको व्युत्पत्तियोंसे लाभ
१. पलो,तो अ. आ. क० ख० ज०। गो० जीवकाण्डे गाथेयं क्षेपकरूपेणास्ति सम्यक्त्वमार्गणाप्रकरणे । २. इयमपि गाथा जीवकाण्डे क्षेपकरूपेणास्ति पाठभेदेन-'तं च पदेसं भणियं अवरावरकारणं जस्स ।' ३. द्रव्यपर्यायाकारमुक्त्वा अ० ख० मु० ज०। ४. प्रतिष्ठयति आ०। ५. धर्माधर्मादीनि यत्र लोक्यन्ते स लोकः । -सर्वार्थसि०, ५-१२। 'दीसंति जत्थ अत्था जीवादीया स भण्णदे लोओ।'-स्वा० का० अनु०, गा० १२१ । 'काल: पञ्चास्तिकायाश्च सप्रपञ्चा इहाखिलाः । लोक्यन्ते येन तेनायं लोक इत्यभिलप्यते ॥५॥ हरि० पु०, ४ सर्ग ।
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