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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
[ गा० १६३
विशेषार्थ-'यह मेरा है' इस प्रकारके अधिकार मूलक भावको स्वामित्व कहते हैं । मिथ्यादृष्टिकी परमें आत्मबुद्धि होती है और सम्यग्दृष्टिकी 'स्व' में आत्मबुद्धि होती है । इसीसे परायी वस्तुको अपना माननेवाला मिथ्यादृष्टि कहा जाता है और अपनी को अपनी माननेवाला सम्यग्दृष्टि कहा जाता है । अजीव तत्त्वमें पौद्गलिक जमीन, जायदाद सम्पत्ति आदिके साथ पौद्गलिक कर्म भी आते हैं और पौद्गलिक कर्मोंके उदयसे होनेवाले राग-द्वेष आदिरूप भाव भी आते हैं। ये सब पर हैं , किन्तु मिथ्यादृष्टि इन्हें अपना मानता है। इसी तरह पुण्य और पाप, आस्रव और. बन्ध तथा जीवकी अशुद्धरूप परिणति भी कर्मकृत होनेसे पर है। मिथ्यादष्टि इन सबको अपना मानता है। उसे स्वपरबिवेक न होनेसे कर्ममें, शरीरमें और अपनी विभावरूप परिणतिमें 'यह मैं है' या 'ये मेरे हैं' ऐसो उसकी भावना रहती है।
'समयसारमें कहा है कि आत्माको नहीं जाननेवालोंको विभिन्न धारणाएँ पायी जाती है-कोई शरीरको ही जीव मानता है, कोई कर्मको या कर्मजन्य वैकारिक भावोंको जीव मानता है, किन्तु ये सब तो पुद्गल द्रव्यके परिणाम है या कर्मरूप पुद्गल द्रव्यके निमित्तसे हए है। अतः .अजीव पदार्थ पुद्गल और चेतन जीव एक कैसे हो सकते हैं वस्तुतः जीवका लक्षण तो चेतना है । और पुद्गलका लक्षण रूप, रस, गन्ध और स्पर्श है। जीवमें रूपादि नहीं होते और पुद्गलमें चेतना नहीं होती। ये दोनों दो स्वतन्त्र द्रव्य है। किन्तु संसार अवस्थामें अनादिकालसे इन दो द्रव्योंका मेल चला आता है,उसके कारण जीव और पुद्गलके मेलसे भ्रम पैदा होता है और व्यवहारनयसे ऐसा कह दिया जाता है कि जीवमें वर्णादि हैं, किन्तु यथार्थ में चैतन्य भाव ही जीवरूप है। शेष सब भाव राग, द्वेष, मोह, कर्म, शरीर, आस्रव, बन्ध, उदय आदि जोवरूप नहीं हैं। जीवकी मोह,राग-द्वेषरूप प्रवृत्तिके निमित्तसे जो पुण्य या पाप कर्मोंका आस्रव और बन्ध होता है वह भी जीवरूप नहीं है। यथार्थमें जीवके रागद्वेष, मोहरूप भाव ही आस्रव भाव हैं। उनका निमित्त पाकर पौदगलिक कर्मोंका आस्रव होता है और आस्रव पर्वक बन्ध होता है। बन्ध किस कारणसे होता है इसे स्पष्ट करने के लिए समयसारमें एक उदाहरण दिया है। एक पहलवान शरीरमें तेल लगाकर धूलभरी भूमि में व्यायाम करता है, वृक्षोंको काटता है,उखाड़ता है, इससे उसका शरीर धूलसे भर जाता है। अब विचारनेकी बात यह है कि उसका शरीर धूलसे लिप्त क्यों हुआ, क्या उसने वृक्षोंको काटा,इसलिए धूलसे लिप्त हुआ या धूल भरी भूमिमें स्थित होनेसे उससे धूल चिपटी। किन्तु यदि वही तेल लगाये बिना यह सब करता है तो उसका अंग धूलसे लिप्त नहीं होता। अतः स्पष्ट है कि उसके शरीरमें लगा तेल ही उसके धूल धूसरित होनेका हेतु है। इसी तरह मिथ्यादृष्टि जीव रागादिसे युक्त होकर जो चेष्टाएँ करता है,उसीसे उसके कर्मबन्ध होता है। अतः जीवकी अशुद्ध परिणति तथा आस्रव, बन्धको अपना माननेवाला मिथ्यादृष्टि है और संवर, निर्जरा.मोक्ष तथा जीवकी शुद्धपरिणतिको अपना माननेवाला सम्यग्दष्टि है। संवरका अर्थ है-रुकना । रागादि भावोंको रोकना संवर है | उसके होनेसे कर्मों का आना भी रुक जाता है, अतः वह भी संवर है। पहलेका नाम भावसंवर है और दूसरेको द्रव्यसंवर कहते हैं। कर्मों के झड़ने का नाम निर्जरा है प्रत्येक संसारी जीवके पूर्वबद्ध कर्मोंकी निर्जरा होती रहती है। जिन कर्मों की स्थिति पूरी हो जाती है वे अपना फल देकर झड़ जाते हैं। किन्तु वह निर्जरा मोक्षका कारण नहीं है। संवर पूर्वक निर्जरा ही मोक्षका कारण है । सम्यग्दृष्ठि संबर और संवर पूर्वक निर्जरा तथा मोक्षको ही अपना मानता है। उसकी यह दृढ़ प्रतीति होती है कि रागादिभाव आत्माका स्वपद नहीं है, क्योंकि वे सब विकारी भाव हैं, इसीलिए शाश्वत नहीं है, आत्मस्वभावके विरुद्ध है, एकमात्र ज्ञानस्वभाव ही आत्माका स्वपद है क्योंकि आत्मा ज्ञानस्वभाव है, इसीसे वह स्थायी है, शाश्वत है, उसीके आश्रयसे मुक्तिकी प्राप्ति होती है, उसके बिना महान् तपस्या करनेपर भी मुक्तिसंभव नहीं है। अतः सम्यग्दृष्टि समस्त विभावोंको अपना नहीं मानता, इसीसे वह किसी भी परभावकी इच्छा नहीं करता। इसीसे कर्मके मध्य रहकर भी वह कर्मसे लिप्त नहीं होता, जैसे सूवर्ण कीचड़ में पड़ा रहकर भी उससे लिप्त नहीं होता, उसमें कोई विकृति पैदा नहीं होती।
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