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उक्तं च
द्रव्यस्वभावप्रकाशक
अप्पएसा मुत्ता पुग्गलसत्ती तहाविहा णेया । अण्णोण्णं मिल्लता बंधो खलु होइ गिद्धाई ॥ कम्मादपदेसाणं अण्णोण्णपवेसणं कसायादो । बंध हो खलु ठिदिपय डिपदेस अणुभागा ॥१५३॥ जोगा पयडिपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होंति । एवं बंधसरूवं णायव्वं जिणवरे भणियं ॥ १५४ ॥ रुंधिय छिद्दसहस्से जलजाणे जह जलं तु णासवदि । मिच्छत्ताइअभावे तह जीवे संवरो होई ॥१५५॥
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ग्रन्थकार अपने कथन के समर्थन में अन्य ग्रन्थका प्रमाण उद्धृत करते हैंआत्मा के प्रदेशों में और मूर्त पुद्गलोंमें इस प्रकारकी शक्ति जाननी चाहिए कि दोनों परस्परमें मिलकर स्निग्ध आदिकी तरह बन्धको प्राप्त होते हैं ।
कर्म और आत्मा के प्रदेशोंका परस्परमें प्रवेशरूप बन्धकषाय से होता है वह बन्ध चार प्रकारका है - प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागगन्ध और प्रदेशबन्ध || प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योगसे होते हैं और स्थितिबन्ध तथा अनुभागबन्ध कषायसे होते हैं । इस प्रकार जिनेन्द्रभगवान् के द्वारा कथित बन्धका स्वरूप जानना चाहिए ।।१५३-१५४ ॥
विशेषार्थ - यह पहले लिख आये हैं कि संसारी जीव अनादिकालसे मूर्तिक कमसे बंधा है, अतः वह भी कथंचित् मूर्तिक हो रहा है । उसके जो नये कर्म बँधते हैं एक तरह से वे कर्म जीवमें स्थित मूर्तिक कर्मों के साथ ही बंधते हैं, क्योंकि मूर्तिकका मूर्तिकके साथ बन्ध होता है । इससे पहले कर्मपुद्गल जीवकी योगशक्ति द्वारा आकृष्ट होते हैं और रागद्व ेषरूप भावोंका निमित्त पाकर आत्मासे बंध जाते हैं । इस तरह आत्माकी योगशक्ति और कषाय, ये दोनों बन्धके कारण हैं । इनसे होनेवाला बन्ध चार प्रकारका होता हैप्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध; स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध | स्वभावको प्रकृति कहते हैं । जैसे नीम कडुआ होता है और गुड़ मीठा होता है । इसी तरह ज्ञानावरणका स्वभाव है-अर्थका बोध न होना । दर्शनावरणका स्वभाव है - अर्थका दर्शन न होना । इस प्रकारका कार्य जिसका हो वह प्रकृतिबन्ध है । कर्मरूपसे परिणत पुद्गलस्कन्धों की संख्याका अवधारण परमाणु रूपसे होना कि कितने परमाणु कर्मरूपसे परिणत हुए, प्रदेशबन्ध है । कर्मोंका अपने-अपने स्वभावरूपसे अमुक समयतक स्थिर रहना स्थितिबन्ध है। जैसे बकरी, गाय, भैंस आदिके दूधका अपने माधुर्यस्वभावसे विचलित न होना स्थिति है । और कर्मोंमें फलदानको शक्तिका होना अनुभागबन्ध है । जैसे बकरी, गाय, भैंस आदिके दूधमें कमती या अधिक शक्ति होती है, वैसे ही कर्मपुद्गलों में जो सामर्थ्यविशेष होती है वह अनुभागबन्ध है । आत्मासे बँधनेवाले कर्मोंमें अनेक प्रकारका स्वभाव होना तथा उनकी परमाणुओं की संख्याका कम अधिक होना योगका कार्य है। तथा उनका आत्माके साथ कम या अधिक कालतक ठहरे रहना और तीव्र या मन्द फल देनेकी शक्तिका होना कषायका कार्य है । इस तरह प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध योगसे और स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध कषायसे होते हैं ।
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[ गा० १५३
संवरका स्वरूप कहते हैं
जैसे जलयान ( नाव ) के हजारों छिद्रोंको बन्द कर देनेपर उसमें पानी नहीं आता, वैसे ही मिथ्यात्व आदिका अभाव होनेपर जीव में संवर होता है ॥ १५५ ॥
१. मुद्रितप्रती 'अप्पपएसा मुत्ता' इति गाथा मूलरूपेण 'कम्मादपदेसाणं' इति गाथा च 'उक्तं च' रूपेण वर्तते । 'कम्मादपदेसाणं अण्णोणपवेसणं इदरो ॥ ३२ ॥ ' - द्रव्यसं० । २. 'पय डिट्ठिदिअणुभागप्पदेस भेदादु चदुविधोबंघो | जोगा पयडिपदेसा ट्टिदिअणुभागा कसायदो होंति ॥३३॥ ' - द्रव्यसं० ।
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