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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
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विशेषार्थ - विभाव स्वभावसे विपरीत होता है । स्वभाव परनिरपेक्ष होता है और विभाव परसापेक्ष होता है । इसीसे विभावसे बन्ध और स्वभावसे मोक्ष कहा है । कर्मके उदयसे होनेवाला प्रत्येक भाव विभाव है । गतिनाम कर्मके उदयसे होनेवाला नारक आदि रूप भाव विभाव है, कषायके उदयसे होनेवाला क्रोध मन आदि रूप भाव विभाव है । वेदकर्मके उदयसे होनेवाला स्त्री-पुरुष या नपुंसकरूप भाव विभाव है । मिथ्यात्व के उदयसे होनेवाला मिथ्यात्वभाव विभाव है, ज्ञानावरण कर्मके उदयसे होनेवाला अज्ञानभाव विभाव है । चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे होनेवाला असंयमभाव विभाव है । कर्मोंके उदयसे होनेवाला असिद्धत्व भाव विभाव है । इसी तरह कषायके उदयसे अनुरंजित योगप्रवृत्ति रूप लेश्या भी विभाव है । इसीसे मिथ्यादर्शन, असंयम, प्रमाद, कषाय और योगको बन्धका कारण कहा है। ज्यों ज्यों जोव विभावपरिणतिको छोड़ता हुआ स्वभाव के उन्मुख होता जाता है त्यों-त्यों बन्धसे छुटकारा होता जाता है। जैसे पहले गुणस्थानमें बन्धके पाँचों कारण रहते हैं अतः उन-उन कारणोंसे बँधनेवाले कर्मोका बन्ध मिथ्यादृष्टि जीवके होता है । उन कर्मप्रकृतियों में १६ प्रकृतियाँ मिथ्यात्वकी प्रधानतामें ही बँधती हैं । अतः मिथ्यात्वका निरोध हो जानेपर उनका बन्ध भगेके गुणस्थानों में नहीं होता । २५ प्रकृतियाँ अनन्तानुबन्धी कषायकी प्रधानता में ही बँधती हैं अतः सासादन गुणस्थानसे आगे उनका बन्ध नहीं होता। दस प्रकृतियाँ अप्रत्याख्यानावरण कषायके उदयकी प्रधानतामें ही बँधती हैं अतः चौथे गुणस्थानसे आगे उनका बन्ध नहीं होता । चार प्रकृतियाँ प्रत्याख्यानावरण कषायकी उदयकी प्रधानता में बंधती हैं अतः पाँचवें गुणस्थान से आगे उनका बन्ध नहीं होता । छह प्रकृतियों के बन्धमें कारण प्रमाद है अतः प्रमत्तसंयतनामक छठें गुणस्थानसे आगे उनका बन्घ नहीं होता । ३६ प्रकृतियाँ संज्वलन कषायके तीव्र उदयमें बँधती है अतः आठवें गुणस्थानसे आगे उनका बन्ध नहीं होता । संज्वलन कषायके मध्यम उदयकी प्रधानता में पाँच प्रकृतियाँ बँधती हैं अतः नौवें गुणस्थानसे आगे उनका बन्ध नहीं होता है । संज्वलन कषायके मन्द उदयकी प्रधानतामें १६ कर्म प्रकृतियाँ बँधती हैं अतः दसवें गुणस्थानसे आगे उनका बन्ध नहीं होता । केवल योगसे एक सातावेदनीय कर्म ही बँधता है अतः अयोगकेवली के उसका भी बन्ध नहीं होता । अयोगकेवली अवस्थाके पश्चात् ही जीव मुक्त हो जाता है । इसी से मिथ्यात्वके प्रतिपक्षी सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानको और असंयम आदिके प्रतिपक्षी सम्यक् चारित्रको मोक्षका कारण कहा है। क्योंकि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र स्वभाव रूप हैं । अतः स्वभावसे मोक्ष और विभावसे बन्ध होता | द्रव्यानुयोगी शास्त्रोंमें जीवके भावके दो भेद किये हैं- शुद्ध और अशुद्ध । अशुद्ध के भी दो भेद किये हैं--शुभ और अशुभ। शुभ परिणामोंसे पुण्यकर्मका बन्ध होता है और अशुभ परिणामोंसे पाप कर्मका बन्ध होता है । अतः शुभ और अशुभ भाव विभाव हैं और एकमात्र शुद्ध भाव ही स्वभाव है। शुद्धभाव किसी भी बन्धका कारण नहीं है । जैनधर्ममें वस्तुका निरूपण करनेवाले दो नय माने गये हैं । एक निश्चयनय और दूसरा व्यवहारनय । निश्चयनय शुद्ध द्रव्यका निरूपण करता है । और व्यवहारनय अशुद्ध द्रव्यका निरूपण करता है । जैसे रागपरिणाम ही आत्माका कर्म हैं वही पुण्य पाप रूप है । राग परिणामका ही आत्मा कर्ता है उसीका ग्रहण करनेवाला और उसीका त्याग करनेवाला है । यह अशुद्ध निश्चयनयका निरूपण है । और पुद्गल परिणाम आत्माका कर्म है, वही पुण्यपाप रूप है । उसीका आत्मा कर्ता है उसीको ग्रहण करता है और छोड़ता है यह व्यवहारनयका निरूपण है । ये दोनों ही नय हैं क्योंकि द्रव्यकी प्रतीति शुद्ध और अशुद्ध दोनों प्रकारसे होती है । किन्तु मोक्षमार्ग में साधकतम होने से निश्यनयको ग्रहण किया गया है। क्योंकि साध्य शुद्ध होनेसे तथा द्रव्यकी शुद्धताका प्रकाशक होने से निश्चयनय ही साधकतम है, अशुद्धताका प्रकाशक व्यवहारनय साधकतम नहीं है । अतः शुद्धभाव हो मोक्षका कारण है, शुभभाव भी विभावरूप होनेसे बन्धका कारण है । यह सब जाननेके पश्चात् ही साधु मोक्षमार्गका आराधक होता है । स्वभाव और विभावका ज्ञान हुए बिना स्वभावका ग्रहण और विभावका त्याग संभव नहीं है । और स्वभावके ग्रहण तथा विभावके त्याग बिना मोक्षकी आराधना संभव नहीं है । अतः मोक्षमार्गके आराधकको उनका ज्ञान होना आवश्यक है ।
[ गा० ९३
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