________________
- ११७ ]
नयचक्र
अचैतन्यवादिनमाशङ्कय चैतन्यं स्वामित्वं चाह -
आदा चेदा भणिओ सा इह फलकज्जणाणभेदा हु । तिन्हं पिय संसारी णाणो खलु णाणदेहा हु ॥ ११६ ॥
यावर फलेसु चेदा तस उयाणं पि होंति णायव्वा । अहव असुद्धे गाणे सिद्धा सुद्धेसु णाणेसु ॥११७॥
विशेषार्थ — जीवके पाँच भाव होते हैं- औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक । इनमेंसे प्रारम्भके चार भाव तो पर्यायरूप हैं और शुद्ध पारिणामिक द्रव्यरूप हैं । इन परस्पर सापेक्ष द्रव्यपर्याय युगलको आत्मपदार्थ कहते हैं । पारिणामिक भाव तीन हैं— जीवत्व, भव्यत्व और अभ व्यत्व । इन तीनों में से जो शक्तिरूप शुद्ध जीवत्व पारिणामिक भाव है, वह शुद्ध द्रव्याथिकनयके आश्रित होने से निरावरण है और उसकी शुद्ध पारिणामिक भाव संज्ञा है । वह न तो बन्धपर्याय रूप है और न मोक्ष पर्यायरूप है । किन्तु दसप्राणरूप जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व पर्यायार्थिक नयाश्रित होनेसे अशुद्ध पारिणामिक भाव कहे जाते हैं । इनको अशुद्ध कहे जानेका कारण यह है कि शुद्धनयसे संसारी जीवोंके भी दस प्राणरूप जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्वका अभाव है और सिद्धों में तो इन तीनोंका सर्वदा ही अभाव होता है । इन तीनोंमें से भव्यत्व भावको ढँकनेवाला तो मोहादि सामान्य कर्म है । जब काललब्धि आदिके मिलनेपुर भव्यत्वशक्तिकी व्यक्ति होती है तब यह जीव सहज शुद्ध पारिणामिक भाव लक्षणवाले निज परमात्मद्रव्यका सम्यक् श्रद्धान- ज्ञान और आचरण करता है । उसी परिणमनको आगमकी भाषामें औपशमिक, क्षायोपशमिक या क्षायिक भावरूप कहते हैं । अध्यात्म में उसे शुद्धात्माके अभिमुख परिणामरूप शुद्धोपयोग कहते हैं । वह पर्याय शुद्धपारिणामिक भावरूप शुद्ध आत्मद्रव्यसे कथंचित् भिन्न है; क्योंकि भावनारूप है । किन्तु शुद्ध पारिणामिक भावनारूप नहीं है । यदि वह एकान्तरूपसे शुद्ध पारिणामिकसे अभिन्न हो तब इस मोक्षकी कारणभूत भावनारूप पर्यायका मोक्षमें विनाश होनेपर शुद्धपारिणामिकके भी विनाशका प्रसंग प्राप्त होता है । किन्तु शुद्ध पारिणमिक तो अविनाशी है । अतः यह स्थिर हुआ कि शुद्धपारिणामिकके विषय में भावनारूप जो औपशामिक आदि तीन भाव हैं वे समस्त रागादिसे रहित होनेके कारण मोक्षके कारण होते हैं; शुद्धपारिणामिक नहीं । जो शक्तिरूप मोक्ष है वह तो शुद्ध पारिणामिकमें पहले से ही रहता है। यह व्यक्तिरूप मोक्षका विचार है । सिद्धान्त में शुद्ध पारिणामिकको निष्क्रिय कहा है । इसका मतलब यह है कि बन्धकी कारणभूत जो रागादि परिणतिरूप क्रिया है वह तद्रूप नहीं होती । तथा मोक्षकी कारणभूत जो शुद्ध भावना परिणतिरूप क्रिया है उस रूप भी वहाँ नहीं होती । अतः शुद्ध पारिणामिक भाव ध्यानरूप नहीं होता, ध्येयरूप होता है; क्योंकि ध्यान तो विनश्वर है । अतः वही उपादेय है ।
६९
अचैतन्यवादीकी आशंकासे चैतन्य और उसके स्वामित्वको कहते हैं—
आत्माको चेतन कहा है । वह चेतना कर्मफल चेतना, कर्मचेतना, और ज्ञानचेतनाके भेदसे तीन प्रकारकी है । संसारी जीवके तीनों चेतना होती है, किन्तु ज्ञानचेतना ज्ञानशरीरी केवलज्ञानियोंके होती है ॥ ११६ ॥
Jain Education International
स्थावर जीवोंके कर्मफल चेतना जानना और त्रस जीवोंके कर्मफल और कर्मचेतना जानना । अथवा इन जीवोंके अशुद्ध ज्ञानचेतना अर्थात् अज्ञानचेतना होती है और सिद्ध जीवोंके शुद्ध ज्ञानचेतना होती है ॥११७॥
१. 'कम्माणं फलमेक्को एक्को कज्जं तु णाणमघ एक्को । चेदयदि जीवरासी चेदगभावेण तिविहे ||३९|| - सव्वे खलु कम्मफलं यावर काया तसा हि कज्जजुदं । पाणित्तमदिक्कता णाणं विदंति ते जीवा ॥४०॥ -- पञ्चास्ति० ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org