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[ गा० १११
द्रव्यस्वभावप्रकाशक हेयोपादेयार्थम् एकस्याप्यस्य चतुर्मेदं दर्शयति--
ते हुति चदुवियप्पा ववहार-असुद्ध-सुद्ध-परिणामा। अण्णे विय बहुभेया णायव्वा अण्णमग्गेण ॥११॥ मणवयणकाय-इंदिय-आणप्पाणाउगं च जं जीवे । तमसब्भूओ भणदि हु ववहारो लोयमज्झम्मि ॥११२॥ ते चेव भावरूवा जीवे भूदा खओवसमदो य । ते होंति भावपाणा असुद्धणिच्छयणयेण णायव्वा ॥११३॥ सुद्धो जीवसहावो जो रहिओ ववभावकम्महि । सो सुद्धणिच्छयादो समासिओ सुद्धणाणीहि ॥११४॥ जो खलु जीवसहावो णो जणिओ णो खयेण संभूदो। कम्माणं सो जीवो भणिओ इह परमभावेण ॥११५॥
आगे ग्रन्थकार हेय और उपादेयका बोध कराने के लिए एक ही प्रकारके चार भेदोंको बतलाते हैं।
जीवमें भावाभावको बतलानेवाले प्रकारके चार भेद हैं-व्यवहार, अशुद्ध, शुद्ध और परिणाम । अन्य मार्गसे अन्य भी बहत भेद जानने चाहिए ॥११॥
विशेषार्थ-इससे प्रथम गाथामें ग्रन्थकारने यह प्रश्न उठाया था कि जीवमें भाव-अभाव किस प्रकारसे सिद्ध होता है ? यहाँ उसीके चार प्रकार गिनाये है-व्यवहारनय, अशुद्धनय, शुद्धनय और पारिणामिक । आगे इन्हीं चारोंकी दृष्टि से जीवका स्वरूप कहते हैं ।
जीवमें जो मनोबल, वचनबल, कायबल, इन्द्रिय, श्वासोछ्वास और आयु प्राण हैं, यह लोकमें असद्भूत व्यवहारनयका कथन है ।।११२॥
विशेषार्थ-उक्त प्राण, द्रव्य और भावके भेदसे दो प्रकारके होते हैं। जैसे द्रव्येन्द्रियाँ आदि द्रव्यप्राण है और क्षायोपशमिक भावेन्द्रियाँ आदि भाव प्राण हैं। यद्यपि उक्त द्रव्यप्राण और भावप्राण आत्मासे भिन्न हैं,किन्तु फिर भी भावप्राण क्षयोपशमजन्य होनेसे चैतन्य शक्तिरूप हैं : किन्तु द्रव्यप्राण तो पौद्गलिक है । अतः अनुपचरित असद्भूत व्यवहार अपेक्षा द्रव्यप्राणोंको जीवका कहा जाता है। और अशुद्ध निश्चयनयसे भाव प्राणोंको जीवका कहा जाता है। यही बात आगे कहते हैं।
जीवमें कर्मोंके क्षयोपशमसे होनेवाले वे ही भावरूप इन्द्रिय आदि भाव प्राण होते हैं और वे अशुद्ध निश्चय नयसे जीवके प्राण जानना चाहिए ॥११३॥
द्रव्य और भावकर्मोंसे रहित जीवका जो शुद्ध स्वभाव है उसे शुद्ध ज्ञानियोंने शुद्ध निश्चयनयसे जीवका स्वभाव कहा है ।।११४।।
विशेषार्थ-जीवका परनिरपेक्ष जो स्वाभाविक शुद्ध स्वरूप है वह शुद्धनिश्चयनयका विषय है। और परसापेक्ष जो स्वरूप कहा जाता है वह यदि अभावरूप है तो अशुद्ध निश्चयनयका विषय है और यदि द्रव्यरूप है तो असद्भूत व्यवहारनयका विषय है। इसीसे द्रव्यप्राणोंको जीवका कहना असद्भूत व्यवहारनयका विषय है अर्थात् असद्भूत व्यवहारनयसे द्रव्यप्राणोंको जीवका कहा जाता है। भावप्राण जीवके हैं, यह अशुद्ध निश्चयनयका कथन है। किन्तु शुद्ध निश्चयनयसे शुद्धजीवके स्वाभाविक सुख,ज्ञान चैतन्य ही स्वाभाविक प्राण हैं । जीव सदा उन्हींसे जीवित रहता है । द्रव्यप्राण और भावप्राण तो कर्मसापेक्ष होनेसे आगन्तुक है;जीवके अपने नहीं हैं। फिर भी संसार अवस्थामें जीवके साथ पाये जाते हैं । अतः उन्हें व्यवहारनयसे जीवके कहा जाता है। ___जीवका जो स्वभाव न तो उत्पन्न होता है और न कर्मों के क्षयसे होता है, परमभाव रूपसे उसे ही जीव कहा है ॥११५।।
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