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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
[गा०१२०
अमूर्तपक्षेऽपि तथा स्यान्मूर्तत्वमाह
जो हु अमुत्तो भणिओ जीवसहावो जिणेहिं परमत्थो।
उवयरियसहावादो अचेयणो मुत्तिसंजुत्तो॥१२०॥ सर्वगतवटकणिकामात्रत्वमपास्य देहमानत्वं भेदं चाह
गुरुलघुदेहपमाणो अत्ता चत्ता हु सत्तसमुघायं । ववहारा णिच्छयदो असंखदेसो हु सो ओ॥१२१॥
तो रसगुणके अभावरूप स्वभाववाला है, रूपगुणके अभावरूप स्वभाववाला है, गन्धगुणके अभावरूप स्वभाववाला है, स्पर्शगुणके अभावरूप स्वभाववाला है, अतः अमूर्तिक है। इसी तरह 'जीव'शब्द पर्यायके अभावरूप स्वभाववाला है। शब्द पुद्गलकी पर्याय होनेसे मूर्तिक है। जीवमें शब्दरूप परिणत होनेकी शक्तिका भी अभाव है। इसी तरह संस्थान-त्रिकोण, चतुष्कोण, लम्बा आदि भी पुद्गलको पर्याय हैं। जीव सब संस्थानोंके अभावरूप स्वभाववाला है। यह जो संसार अवस्थामें जीवको शरीराकार बतलाया है सो शरीर तो पौद्गलिक है, नामकर्म के द्वारा रचा गया है। अतः वह आकार तो शरीरका ही है, जीवका नहीं है । इसी तरह मुक्त होनेपर भी मुक्त जीवको किंचित् न्यून पूर्वशरीराकार कहा है। अतः वह आकार भी शरीरका ही है,उसीका निमित्त पाकर जीवका वैसा आकार रह जाता है। क्योंकि कर्मका सम्बन्ध छूट जानेपर जीवके प्रदेशों में संकोच-विस्तार भी सम्भव नहीं है। अतः जीवका अपना कोई स्वाभाविक संस्थान नहीं है। एक देशसे देशान्तर प्राप्तिमें हेतु हलन-चलनको क्रिया कहते हैं । बाह्य साधनसे सहित जीव सक्रिय होते हैं । जीवोंके सक्रियपनेका बहिरंगसाधन कर्म-नोकर्मरूप पुद्गल होते हैं। सिद्धोंके कर्म-नोकर्मरूप पुद्गलोंका अभाव है, अत: उन्हें निष्क्रिय कहा है। इस तरह मूर्तिकपनेका कोई भी लक्षण जीवमें नहीं पाया जाता, अतः जीव अमूर्तिक है। संसारी जीवको जो मूर्तिक कहा है उसका कारण है-कर्म नोकर्मरूप बन्धन । उस बन्धनके कारण ही उसे मूर्तिक कहा है। स्वभावसे तो वह अमूर्तिक ही है। इसी बातको ग्रन्थकार आगे
अमूर्त होते हुए भी जीव कथंचित् मूर्तिक है
जिनेन्द्रदेवने जो जीवको अमूर्तिक कहा है, वह जीवका परमार्थ स्वभाव है। उपचरित स्वभावसे तो मूर्तिक और अचेतन है ॥१२०।।
विशेषार्थ-जीवका वास्तविक स्वभाव तो अमूर्तिकपना है। उपचारसे ही उसे मूर्तिक कहा जाता है।इतना ही नहीं, किन्तु उसे अचेतन भी कहा जाता है; क्योंकि जीवसे बद्ध कर्म जैसे मूर्तिक हैं वैसे ही अचेतन भी हैं। अतः कर्मबन्धके कारण जीवको जैसे उपचारसे मूर्तिक कहा जाता है, वैसे ही उपचारसे अचेतन भी कहा जाता है । अचेतनकी संगतिका फल तो कुछ मिलना ही चाहिए।
जीव न तो व्यापक है और न वटकणिकामात्र है, किन्तु शरीर प्रमाण है, यह बतलाते हैं
व्यवहारनयसे सात समुद्घातोंको छोड़कर जीव अपने छोटे या बड़े शरीरके बराबर है और निश्चयनयसे उसे असंख्यातप्रदेशी जानना चाहिए ॥१२१।।
विशेषार्थ-जैसे; दीपकको जैसे स्थानमें रख दिया जाता है, उसका प्रकाश उतने ही में फैल जाता है। यदि छोटेसे कमरेमें रखा जाता है, तो उसका प्रकाश संकुचित होकर उतना ही रह जाता है और यदि उसी प्रकाशको बड़े कमरेमें रखा जाता है, तो वह फैलकर उतना ही बड़ा हो जाता है। उसी तरह इस जीवको नामकर्मके द्वारा जैसा छोटा या बड़ा शरीर मिलता है, यह जीव उतने ही-में सकुच जाता है या फैल जाता है। किन्तु समुद्धात अवस्थामें जीव शरीरके बाहर भी फैल जाता है। मूल शरीरको न छोड़ते हुए आत्माके कुछ प्रदेशोंके शरीरसे बाहर निकलनेको समुद्घात कहते हैं । वे समुद्घात सात है-वेदना, कषाय, १. 'अणुगुरुदेहपमाणो उवसंहारप्पसप्पदो चेदा। असमुहदो ववहारा णिच्चयणयदो असंखदेसो वा ॥१०॥ -द्रव्यसंग्रह।
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