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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
[ गा० ११७
विशेषार्थ-आत्माका स्वरूप चेतना ही है।अतः आत्मा चैतन्यरूप ही परिणमन करता है। आत्माका कोई भी परिणाम ऐसा नहीं है जो चेतनारूप नहीं है। चेतनाके तीन भेद हैं-कर्मफल चेतना, कर्मचेतना और ज्ञानचेतना। अथवा चेतनाके दो भेद हैं- ज्ञानचेतना और अज्ञानचेतना। अज्ञानचेतनाके दो भेद हैंकर्मचेतना और कर्मफल चेतना। ज्ञानके सिवाय अन्य भावोंमें ऐसा अनुभव करना कि इसको मैं भोगता हूँ, यह कर्मफल चेतना है और ज्ञानके सिवाय अन्य भावों में ऐसा अनुभवन करना कि इसको मैं करता हूँ, यह कर्मचेतना है। इसे यों भी कह सकते हैं कि ज्ञानरूप परिणमनका नाम ज्ञानचेतना है, कर्मरूप परिणमनका नाम कर्मचेतना है और कर्मफलरूप परिणमनका नाम कर्मफल चेतना है। अर्थके विकल्पको ज्ञान कहते हैं। स्त्र और परके भेदसे अवस्थित समस्त विश्व अर्थ है और उसके आकारको जाननेका नाम विकल्प है। अर्थात् जैसे दर्पणमें अपना और परका आकार एक साथ ही प्रकाशित होता है वैसे ही एक साथ स्व और
थों के आकारके अवभासनको ज्ञान कहते हैं। जो आत्माके द्वारा किया जाता है उसे कर्म कहते हैं । और उस कमसे होनेवाले सुख-दुःखको कर्मफल कहते हैं। आत्मा परिणामस्वरूप है और चेतन आत्माका परिणाम चेतनारूप ही होता है और चेतनाके तीन रूप है-ज्ञान, कर्म और कर्मफल । अतः ज्ञान कर्म और कर्मफल आत्मा ही है। इन तीन प्रकारकी चेतनाओंमें-से स्थावरकायिक जीवोंके मुख्यरूपसे कर्मफल चेतना ही होती है। क्योंकि उनकी आत्मा अतिप्रकृष्ट मोहसे मलिन है।उनका चेतकस्वभाव अतिप्रकृष्ट ज्ञानावरण कर्मके उदयसे आच्छादित है। उनकी कार्य करनेकी शक्ति अर्थात् कर्मचेतनारूप परिणति होनेकी सामर्थ्य अतिप्रकृष्ट वीर्यान्तराय कर्मके उदयसे नष्ट हो गयी है। अतः वे प्रधानरूपसे सुख-दुःखरूप कर्मफलको ही भोगते हैं । इसीसे दूसरे धर्मवाले स्थावर पर्यायको भोगयोनि कहते हैं। उनमें बुद्धिपूर्वक कार्य करनेकी क्षमता नहीं होती। त्रस जीवोंके मुख्य रूपसे कर्मचेतना और कर्मफल चेतना भी होती है। क्योंकि यद्यपि उनका चेतकस्वभाव भी अतिप्रकृष्ट मोहसे मलिन और अतिप्रकृष्ट ज्ञानावरण कर्मके उदयसे आच्छादित होता है, तथापि
का थोडा-सा क्षयोपशम विशेष होनेसे उनमें कार्य करनेकी सामर्थ्य पायी जाती है। अतः वे सुखदुःखरूप कर्मफलके अनुभवनसे मिश्रित कार्यको ही प्रधानरूपसे चेतते हैं। तथा जिनकी समस्त मोहजन्य कालिमा धुल गयी है, समस्त ज्ञानावरण कर्मके नष्ट हो जानेसे जिनका चेतकस्वभाव अपने समस्त माहात्म्यके साथ विकसित हो गया है, समस्त वीर्यान्तरायके क्षय हो जानेसे जिन्होंने अनन्तानन्तवीर्यको भी प्राप्त कर लिया है,वे सिरूपरमेष्ठी कर्म कर्मफलके निर्जीर्ण हो जानेसे तथा अत्यन्त कृतकृत्य होनेसे स्वाभाविक सुखस्वरूप अपने ज्ञानको हो चेतते हैं । यद्यपि ग्रन्थकारने सिद्धोंके ही मुख्य रूपसे ज्ञानचेतना बतलायी है,किन्तु शास्त्रकारोंने जीवन्मुक्त अहन्त केवलीके भी मुख्यरूपसे ज्ञानचेतना बतलायो है; क्योंकि उनके भी मोहनीय, ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्म क्षय हो गये है। अतः पूर्ण ज्ञानचेतना तो इन्हीं दोनों के होती है, किन्तु आंशिक ज्ञानचेतना सम्यग्दष्टिके भी होती है। यदि मिथ्याष्टिकी तरह सम्यग्दष्टिके भी अशद्ध कर्मचेतना और कर्मफल चेतना ही मानो जायेंगी, तो सम्यग्दृष्टि और मिथ्यावृष्टिमें भेद क्या रहेगा! अशुद्ध चेतना तो संसारका बीज है।इस. लिए मोक्षार्थीको अज्ञानचेतनाके विनाशके लिए सकलकर्मसंन्यास भावना और सकलकर्मफल संन्यासभावनासे छुड़ाकर नित्य एक ज्ञानचेतनाकी ही उपासना करनेका उपदेश दिया गया है। सम्यग्दृष्टिके मत्यादि ज्ञानावरण तथा वीर्यान्तरायका क्षयोपशम होता है और दर्शन मोहनीयके उदयका अभाव होता है। अतः उसे शुद्धात्माकी अनुभूति होती है वहीं तो ज्ञानचेतना है; क्योंकि आत्मानुभूतिका नाम ही ज्ञानानुभूति है । सम्यग्दृष्टिके उसकी मुख्यता है; यद्यपि गौणरूपसे अशुद्धोपलब्धि भो मानी गयी है । किन्तु मिथ्यादृष्टिके तो अशुद्धोपलब्धि ही है जो कर्म और कर्मफल चेतनारूप है। इसीसे सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिकी क्रिया देखने में समान होती है किन्तु मिथ्यादृष्टिको जो क्रिया बन्धका कारण है , सम्यग्दृष्टिकी वही क्रिया निर्जराका कारण है क्योंकि कर्म और कर्मफलमें मिथ्यादृष्टिको आत्मबुद्धि है; किन्तु सम्यग्दृष्टिको आत्मबुद्धि नहीं है । अतः सम्यग्दृष्टिके भी आंशिकरूपमें ज्ञानचेतना होती है ।
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