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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
[ गा० १०८
जीवामावनिषेधार्थ तस्यैव स्वरूपं व्युत्पत्तिश्चोच्यते
कम्मकलंकालीणा अलद्धससहावभावसभावा । 'गुणमग्गणजीवट्ठिय जीवा संसारिणो भणिया ॥१०॥
और मुक्ति किसी अन्यकी कृपा या रोषका परिणाम नहीं है। ऐसी प्रभुत्व शक्तिसे युक्त जीव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक्चारित्रके द्वारा चार घातिकर्मोको नष्ट करके जब अनन्त चतुष्टयसे युक्त होता हुआ अर्हन्त दशाको प्राप्त होता है, तब उसमें उस प्रभुत्व शक्तिका पूर्ण विकास होता है । और जब वह शेष चार अघाती कर्मोको भो नष्ट करके सिद्ध मुक्त हो जाता है,तब तो वह स्वयं साक्षात् प्रभु ही हो जाता है । अतः इस जीवको अपनी वर्तमान संसारी अवस्थामें भी अपनेको असमर्थ और एक दम पराधीन नहीं समझना चाहिए। रान कुछ उसी के हाथमें है। वह अनन्तशक्तिका भण्डार है। अपने पुरुषार्थसे वह क्या नहीं कर सकता ! भक्त से भगवान् बन जाता है ।
आगे जोवके अभावका निषेध करनेके लिए उसका स्वरूप और जीवशब्दकी व्युत्पत्ति कहते हैं
जो कर्ममलरूपो कलंकसे युक्त हैं, जिन्होंने अपने स्वभावको प्राप्त नहीं किया और न अपने अस्तित्वको ही जाना है तथा जो गुणस्थान,मार्गणास्थान और जीवसमासोंमें स्थित हैं,उन जीवोंको संसारी कहा है ।।१०८।।
विशेषार्थ-हम सभी संसारी जीव हैं। हमारा जन्म और मरण निश्चित है। यह जन्म और मरण की क्रिया जड़ पदार्थों में तो नहीं होती,चेतन पदार्थों में ही होती है। मनुष्य, पशु-पक्षी आदि जन्म लेते हैं तो शरीरके साथ ही जन्म लेते हैं और जब मरते है, तो शरीर तो पड़ा रह जाता है उसमें जो हाथ, पैर, आँख, नाक, कान आदि होते है वे सब भी जैके तैसे बने रहते हैं। किन्तु उनमें कोई क्रिया नहीं न वह मर्दा शरीर रोता है. न हंसता है, न बोलता है,न हाथ पैर हिलाता है, न कुछ जानता-देखता है। किन्तु जब वह मुर्दा नहीं था, तब उसमें ये सब क्रियाएँ होती थीं। वे क्रियाएँ जो करता था, उसे ही जीव कहते हैं। वही जीव आयु पूरी होनेपर शरीर छोड़कर नया शरीर धारण करता है । जन्म लेना और मरना, मरना और जन्म लेना इसीका नाम संसार है। किन्तु जीव सब कुछ जानते हुए भी अपनेको नहीं जानता । सदासे जीवके अस्तित्वमें विवाद रहा है। शरीरके साथ ही उसकी उत्पत्ति और शरीरके साथ ही उसका विनाश माननेवाले ही दुनियामें अधिक है। किन्तु शरीरके साथ उत्पन्न होनेपर भी जिसे हम जीव कहते हैं, वह शरीरके साथ नष्ट नहीं होता, शरीर तो ज्योंका त्यों पड़ा रहता है और वह निकल जाता है । उसके निकल जानेसे ही शरीर मुर्दा हो जाता है । इसीसे जीवको शरीरसे भिन्न माना गया है और शरीरके पड़े रहने से भी जो-जो बातें उस जाने वाले के साथ चली जाती हैं, उनको जीवकी ही विशेषताएं माना जाता है। उन विशेषताओं में मख्य विशेषता है-जानना-देखना। यह जानना, देखना किसी भी जड़में कभी भी नहीं देखा गया। यहां तक कि मुर्दा शरीरमें भी नहीं । अतः जीव का मुख्य गुण ज्ञान है । और उसके साथ सुख है । ज्ञानके द्वारा ही मैं सुखी हूँ या मैं दुःखी हूँ ऐसा बोध होता है। ये सब जीवकी पहचान है। वह जीव जैसे कर्म करता है वैसा ही उसका फल भोगता है । इसीसे दुनियामें कोई गरीब, कोई अमीर, कोई रूपवान्, कोई कुरूप, कोई दुःखी कोई सुखी, कोई बुद्धिमान् कोई मूर्ख आदि देखा जाता है । अतः संसारी जीव कर्मोसे बंधा हआ है.वह अपने स्वरूपको नहीं जानता । नाना योनियों और गतियोंमें उसके नानारूप हो रहे हैं। उन्हीं नाना रूपोंको जानने के लिए आगममें गुणस्थान, मार्गणास्थान और जीवसमास बतलाये हैं। गणस्थान १४ हैं। ये केवल संसारी जीवोंके ही होते हैं । मोहनीय कर्म सब कर्मों में प्रधान है। उसीको लेकर
१. 'मग्गणगणठाणेहि य चउदसहि हवंति तह असद्धणया। विण्णेया संसारी सम्वे सुद्धा ह सुद्धणया ॥१३॥' -द्रव्यसंग्रह।
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