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नयचक्र एवमनेकान्तं समर्थ्य तत्फलं च दर्शयति
एवं सियपरिणामी बज्झदि मुच्चेदि दुविहहे(हिं । ण विरुज्झदि बंधाई जह एयंते विरुज्झेई ॥१४॥
इति द्रव्यसामान्यलक्षणम् ।
आगे अनेकान्तका समर्थन करके उसका फल दिखाते हैं--
इस प्रकार स्याद्वाददृष्टिसे सम्पन्न व्यक्ति अन्तरंग बहिरंग कारणोंसे बँधता और छूटता है। जैसे एकान्तवादमें बन्ध और मोक्षकी व्यवस्थामें विरोध आता है वैसे अनेकान्तवादमें विरोध नहीं आता ॥१४॥
विशेषार्थ--आत्माको सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य आदि माननेका नाम एकान्तवाद है। आत्माको सर्वथा नित्य माननेसे उसमें किसी तरह का परिवर्तन सम्भव नहीं है क्योंकि परिवर्तन माननेसे सर्वथा नित्यताका घात होता है। ऐसी स्थिति में जब आत्मामें किसी प्रकारका विकार सम्भव नहीं है तो बन्ध और मोक्षको व्यवस्था कैसे बन सकती है ? आत्माको सर्वथा नित्य माननेपर उसमें शुभ और अशुभ क्रिया नहीं हो सकती। शभ और अशभ परिणामों के अभाव में पुण्य और पापको उत्पत्ति नहीं हो सकती क्योंकि कारणके अभावमें कार्य नहीं होता। पुण्य और पापकी उत्पत्तिके कारण शुभ और अशुभ परिणाम होते हैं। उनके अभावमें पुण्य-पापका बन्ध सम्भव नहीं है । और उनके अभावमें नया जन्म धारण करके सुख-दुःखादि फलका उपभोग करना भी सम्भव नहीं है। इस तरहसे एकान्तवादमें पुण्य-पाप, जन्म-मरण, बन्ध-मोक्ष आदि नहीं बनते। इसी तरह आत्माको सर्वथा क्षणिक मानने पर भी ये सब नहीं बनते। क्योंकि क्षणिक चित्तमें प्रत्यभिज्ञान, स्मृति, इच्छा, द्वेष आदि सम्भव न होनेसे वह कोई कार्य नहीं कर सकता। और प्रत्यभिज्ञान आदिका अभाव इसलिए है कि क्षणिकवादमें कोई एक प्रत्यभिज्ञाता नहीं है। पहले किसी वस्तुको देखकर कुछ कालके बाद उसे पुनः देखनेपर देखनेवाला पूर्वस्मरणकी सहायतासे यह निर्णय करता है कि यह वही है जिसे मैंने पहले देखा था। यह सब क्षणिकवादमें कैसे सम्भव हो सकता है, वहां तो क्षण-क्षणमें वस्तुका सर्वथा विनाश माना गया है अतः देखनेवाला और जिसे देखा था, वे दोनों ही जब नष्ट हो चुके तो यह वही है ऐसा स्मरणमलक प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है ? अतः जब चित्तक्षण कुछ कार्य करने में असमर्थ है तो पुण्यपापरूप फल कैसे सम्भव हो सकता है । और उसके अभावमें जन्म-मरण तथा बन्ध-मोक्ष कैसे हो सकते हैं। अतः सर्वथा नित्यवाद और सर्वथा क्षणिकवादमें बन्ध और मोक्षको व्यवस्था नहीं बनती इसलिए अनेकान्तवादको ही अंगीकार करना उचित है। प्रत्येक वस्तु द्रव्यरूपसे नित्य है और पर्यायरूपसे अनित्य है । अतः पर्यायोंके उत्पाद, विनाशशील होनेपर भी द्रव्यका विनाश नहीं होता। अतः जो आत्मा कर्म करता है वही उसका फल भोगता है। जो बंधता है वही छूटता है बन्धन और मुक्तिरूप पर्यायका आश्रयभूत आत्मा द्रव्यरूपसे नित्य है।
इस प्रकार द्रव्य सामान्यका कथन समाप्त हुआ।
१. 'पुण्यपापक्रिया न स्यात् प्रेत्यभावः फलं कुतः । बन्धमोक्षौ च तेषां न येषां त्वं नासि नायकः ।।४।। क्षणिकैकान्तपक्षेऽपि प्रेत्यभावाद्यसंभवः । प्रत्यभिज्ञाद्यभावान्न कार्यारम्भः कुतः फलम् ॥४१॥ आप्तमी । 'बन्धश्च मोक्षश्च तयोश्च हेतू बद्धश्च मुक्तश्च फलं च मुक्तेः । स्याद्वादिनो नाथ तवैव युक्तं नैकान्तदृष्टेस्त्वमतोऽसि ज्ञास्ता ॥ -स्वयंभूस्तोत्र ।
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