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४८ द्रव्यस्वभावप्रकाशक
[ गा० ८४उत्तरप्रकृतीनां यथाक्रम संख्यामाह
णव पण दो अडवीसा चउ तेणउदी तहेव दो पंच।
एदे उत्तरभेया एयाणं उत्तरोत्तरा हुंति ॥८४॥ उत्तर प्रकृतियोंकी क्रमसे संख्या कहते हैं
पाँच, नो, दो, अट्ठाईस, चार, तिरानवे, दो और पांच ये उत्तर प्रकृतियाँ हैं। इनकी भी उत्तरोत्तर प्रकृतियां होती हैं ।।८४॥
विशेषार्थ-ज्ञानावरणीय कर्मकी पाँच प्रकृतियां हैं-मतिज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, मनःपर्ययज्ञानावरणीय और केवलज्ञानावरणीय । इन्द्रिय और मनके द्वारा होने वाले ज्ञानको मतिज्ञान कहते है । उसका आवारक कर्म मतिज्ञानावरणीय है। मतिज्ञानके द्वारा ग्रहण किये गये अर्थके निमित्तसे जो अन्य अर्थों का ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है। धूमके निमित्तसे उत्पन्न हुआ अग्निका ज्ञान, नदीपूरके निमित्तसे उत्पन्न हुआ ऊपरी भागमें वृष्टिका ज्ञान, देशान्तरको प्राप्तिके निमित्तसे उत्पन्न हुआ सूर्यकी गतिका ज्ञान और शब्दके निमित्तसे उत्पन्न हुआ शब्दार्थका ज्ञान श्रुतज्ञान है। इसी तरह श्रुतज्ञानके निमित्त से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह भी श्रुतज्ञान ही है, फिर भी मतिज्ञान पूर्वक श्रुतज्ञान होता है-इस "तत्त्वार्थ सूत्रके कथनके साथ उसका विरोध नहीं आता, क्योंकि यह कथन तत्त्वार्थसुत्रमें श्रुतज्ञानको प्रारम्भिक प्रवृत्तिकी अपेक्षा किया गया है। इस श्रुतज्ञानका आवारक कर्म श्रुतज्ञानावरणीय है। इन्द्रिय आदिकी सहायताके बिना मूर्तिक पदार्थका मर्यादा सहित जो स्पष्ट ज्ञान होता है वह अवधिज्ञान है। इस अवधिज्ञानको जो आवरण करता है वह अवधिज्ञानावरणीय कर्म है। पराये मनको प्राप्त हुए अर्थका नाम मन है और मनकी पर्यायों अर्थात् विशेषोंका नाम मनःपर्याय है। उन्हें जो जानता है वह मनः पर्यायज्ञान है। इस ज्ञानका आवरणकर्म मनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्म है। जो केवल आत्मासे उत्पन्न होता है, त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्य और पर्यायोंको विषय करता है, करण, क्रम और व्यवधानसे रहित है वह अविनाशी प्रत्यक्षज्ञान केवलज्ञान है। इसका आवारक कर्म केवलज्ञानावरणीय कर्म है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके अनेक भेद हैं। अतः उनके आवारक मतिज्ञानावरणीय कर्मोके भी उत्तरोत्तर अनेक भेद जानने चाहिए। जैसे मतिज्ञानके मूल भेद चार हैं-अवग्रह ईहा अवाय और धारणा। अतः मतिज्ञानावरणीय कर्मके भी चार भेद हैं-अवग्रहावरणीय, ईहावरणीय, अपायावरणीय, धारणावरणीय । अवग्रहके दो भेद है-व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह । अतः अवग्रहावरणीय कर्मके भी दो भेद है-व्यञ्जनावग्रहावरणीय और अर्थावग्रहावरणीय 1 इस तरह जिस ज्ञानके जितने भेद-प्रभेद हैं, उसके आवारक कर्मकी भी उतनी ही उत्तरोत्तर प्रकृतियाँ हैं । दर्शनावरण कर्मकी नो उत्तर प्रकृतियाँ हैं-निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, निद्रा, प्रचला, चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और केवलदर्शनावरणीय । जिस प्रकृतिके उदयसे खूब सोता है, उठाये जानेपर भी नहीं उठता, वह निद्रानिद्रा प्रकृति है। जिसके उदयसे बैठा हुआ भी सो जाता है,सिर धुनता है, हाथ-पैर पटकता है वह प्रवलाप्रचला प्रकृति है । जिसके उदयसे सोता हुआ भी मार्गमे चलता है, मारता काटता बड़बड़ाता है,वह स्त्यानाद्ध है। जिसके उदयसे आधा जागता हुआ सोता है वह निद्रा प्रकृति है। जिसके उदयसे आधा सोते हुए भी सिर आदि थोड़ा थोड़ा हिलते रहें वह प्रचला है। ये पांचों ही प्रकृतियाँ दर्शनावरणीय हैं क्योंकि वे स्वसंवेदनका विनाश करती हैं । चाक्षुष विज्ञानको उत्पन्न करनेवाला स्वसंवेदन चक्षुदर्शन है और उसका आवारक कर्म चक्षुदर्शनावरणीय है । श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा, स्पर्श और मनके निमित्तसे होनेवाले ज्ञान के कारणभूत स्वसंवेदनका नाम अचक्षुदर्शन है और इसके आवारक कर्म का नाम अचक्षुदर्शनावरणीय है । परमाणुसे लेकर महास्क
१. 'पंच णव दोण्णि अट्ठावोसं चउरो कमेण तेणउदी। तेउत्तरं सयं वा दुगपण्णं उत्तरा होति ॥२२॥'गो० कम० । प्रा० पञ्चसंग्र०, २।४ । २. दुग ज० ।
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