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नयचक्र
दसणणाणावरणं वेदो मोहं तु आउ णामं च । गोदंतराय मूला पयंडी जीवाण णायव्वा ॥८३॥
द्रव्य स्वयं ही कर्मरूप परिणमन करता है। इस तरह दोनोंमें निमित्त-नैमित्तिक भाव है। वास्तवमें आत्मा तो अपने भावोंको करता है और पुद्गल अपने भावोंको करता है। किन्तु यह आत्मा अज्ञानवश स्व और पर का भेदज्ञान न होनेसे परको अपना करता है और अपनेको पराया करता है और इस तरहसे वह कर्मोका कर्ता कहा जाता है। द्रव्यकर्मोंके उदयवश आत्मामें जो भाव क्रोध होता है उसमें और आत्मामें भाव्यभावक भाव पाया जाता है। क्रोधादिरूप परिणत आत्मा भाव्य है और भावक्रोध भावक है। इन दोनोंमें जो भेद है उसका ज्ञान न होनेसे अपनेको क्रोध रूप मानकर तदनुरूप आत्मा परिणमन करता है। यह तो एक उदाहरण है । क्रोधकी ही तरह अन्य कषायों और इन्द्रियों आदिको लिया जा सकता है। इसी तरह यह आत्मा ज्ञाता है.पर वस्तु ज्ञेय है। दोनोंमें मात्र ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध है। किन्तु अज्ञानवश यह आत्मा दोनोंको एक मानकर हर्ष-विषादादि करता है। इस तरह द्रव्यकर्म और भावकममें परस्पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध होनेसे अनादिकालसे यह जीव कर्मोके बन्धनमें पड़ा हुआ उस बन्धनको पुष्ट ही करता रहता है।
मूल प्रकृतियोंके नाम कहते हैं
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये जीवोंके मूलकर्म जानने चाहिए ॥८३॥
विशेषार्थ-बाह्य पदार्थको जाननेवाली जीवकी शक्ति ज्ञान है । वह जीवका गुण है । उसके बिना जीवके अभावका प्रसंग आता है । उस ज्ञानको जो आवृत करता है वह ज्ञानावरणीय कर्म है। जीवका लक्षण उपयोग है । वह उपयोग दो प्रकारका है-साकारोपयोग और अनाकारोपयोग। साकार उपयोगका नाम ज्ञान है और उसको आवरण करनेवाला कर्म ज्ञानावरणीय है। तथा अनाकार उपयोगका नाम दर्शन है । उसको आवरण करनेवाला कर्म दर्शनावरणीय है। जीवके सुख और दुःखका उत्पादक कर्म वेदनीय है। यहाँ सुखसे दुःखका क्षय नहीं लेना चाहिए,किन्तु दुःखका उपशम लेना चाहिए। क्योंकि सुख स्वभाव है अतः उसे कर्मजन्य मानने में विरोध आता है। जो मोहरहित स्वभाववाले जीवको मोहित करता है वह मोहनीय कर्म है । जो भवधारणमें कारण है वह आयुकर्म है। जो जीवको नानारूप बनाता है वह नामकर्म है । जो उच्च-नीचका ज्ञान करता है वह गोत्रकर्म है । जो दाता और गृहीताके बीच में आता है वह अन्तराय कर्म है। इस प्रकार कर्मकी ये आठ मूल प्रकृतियाँ हैं। इनमें से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार कर्म घाती कहे जाते हैं क्योंकि ये जीवके गुणोंके घातक हैं। शेष चार अघाती हैं । यद्यपि छद्मस्थोंको दर्शन पहले होता है, पश्चात् ज्ञान होता है; किन्तु दर्शनसे ज्ञान पूज्य है। इस तरह ज्ञानके बाद दर्शनको स्थान दिया गया है। इनके पश्चात् सम्यक्त्वका नम्बर आता है और फिर वीर्यका । इन चारों गुणोंको घातने वाले हैं-क्रमसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय। वेदनीय कर्म यद्यपि अघाती है, किन्तु मोहका बल पाकर घातीकी तरह जीवका घात करता है, इसलिए उसे घातिकर्मों के मध्य में और मोहनीयके पहले स्थान दिया है। आयुके बलसे जीव किसी भवमें ठहरता है, उसके पश्चात् उसके शरीर आदिका निर्माण होता है और शरीर निर्माणके साधनोंको लेकर ऊँच-नीचका व्यवहार चलता है, अतः आय नाम और गोत्रका क्रम रखा गया है । अन्तराय कर्म घाति होते हुए भी अघातिको तरह समस्त वीर्य गुणको घातने में असमर्थ है तथा नामादिका निमित्त पाकर अपना कार्य करता है, इसलिए उसे सब कर्मोके अन्त में रखा है । इस प्रकार आठों कर्मोके क्रमको समझना चाहिए ।
१. पयडिय आ० क०। 'णाणस्स दसंणस्स य आवरणं वेयणीय मोहणियं । आउग णामं गोदंतरायमिदि अट्र पयडीओ ॥८॥'-गो० कम०। प्रा. पञ्चसं०, २।२।
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