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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
इय पुव्वत्ता धम्मा सियसावेक्खा ण गिव्हए जो हु । सो इहमिच्छाइट्ठी णायव्वो पवयणे भणिओ ||७३ ॥
एक धर्म मुखेन ही किया जायेगा । जैसे वस्तु अस्तिस्वरूप भी है और नास्तिस्वरूप भी है । किन्तु जब हम शब्द के द्वारा उसको कहेंगे तो या तो अस्तिस्वरूप ही कहेंगे या नास्तिस्वरूप ही कहेंगे, दोनों धर्मोका कथन एक साथ नहीं कर सकते । इसके सिवाय दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि शब्दकी प्रवृत्ति वक्ता के अधीन है । वक्ता वस्तुके अनेक धर्मो में से किसी एक धर्मकी मुख्यतासे वचन व्यवहार करता है । जैसे देवदत्तको एक 'पुत्र' कहकर पुकारता है और और न केवल पुत्र ही है । वह पिताकी अपेक्षा पुत्र है । अतः
ही साथ उसका पिता भी पुकारता है और पुत्र भी पुकारता है—पिता उसे पुत्र उसे 'पिता' कहकर पुकारता है । किन्तु देवदत्त न केवल पिता ही है पिता भी है और पुत्र भी है । अपने पुत्रको अपेक्षा वह पिता है और अपने पुत्र की दृष्टिसे उसका पितृत्वधर्म मुख्य है शेषधर्म गौण हैं । और पिताकी दृष्टिसे पुत्रत्वधर्म मुख्य हैं शेष धर्म गौण हैं । इससे अनेक धर्मात्मक वस्तुमें जिस धर्मकी विवक्षा होती है वह धर्म मुख्य कहा जाता है और शेष धर्म गौण । इस तरह जब वस्तु अनेक धर्मात्मक है और शब्द में इतनी शक्ति नहीं है कि वस्तुके उन अनेक धर्मोका कथन एक साथ कर सके । तथा जब प्रत्येक वक्ता भी अपने-अपने अभिप्रायके अनुसार वचनव्यवहार करता है तो वस्तुका यथार्थ स्वरूप समझने में श्रोताको कोई धोखा न हो, इसलिए अनेकान्तवादी जैनदर्शन में स्याद्वाद सिद्धान्तका आविष्कार हुआ। 'स्यात्' शब्दका अभिप्राय कथंचित् या किसी अपेक्षासे है । यह 'स्यात्' शब्द अनेकान्तका वाचक है । जैन दृष्टिके अनुसार यह 'स्यात्' शब्द प्रत्येक वाक्य के साथ गुप्त रूपसे सम्बद्ध रहता है । अतः जब कोई किसी वस्तुको सत् या असत् कहता है तो उसका यही अभिप्राय लेना चाहिए कि वस्तु स्यात् सत् है या स्यात् असत् है । क्योंकि न तो कोई वस्तु सर्वथा सत् हो सकती है। और न सर्वथा असत् हो सकती है । इसीसे ग्रन्थकारने स्यात् शब्दकी उपयोगिता बतलायी है और उसके अभाव में हानि बतलायी है । जैसे कोई पदार्थ सर्वथा एकान्तात्मक नहीं है वैसे ही कोई वाक्यार्थ भी सर्वथा एकान्तात्मक नहीं है । तथा जैसे ज्ञान प्रमाण और नयरूप हैं वैसे ही वाक्य भी प्रमाण और नयरूप होते हैं । प्रमाण और नय में जो अन्तर है वही अन्तर प्रमाणवाक्य और नयवाक्य में है । एकधमंके द्वारा अनेकान्तात्मक वस्तुका कथन करनेवाला प्रमाणवाक्य है और इतर धर्मसापेक्ष एकधर्मका कथन करनेवाला नयवाक्य है । दोनों ही प्रकारके वाक्यों में 'स्यात्' शब्दका प्रयोग आवश्यक है । यदि उसका प्रयोग न भी किया गया हो तो भी यह समझना चाहिए कि स्यात् पद उसके साथ गुप्तरूपसे सम्बद्ध है । इससे वक्ता के अभिप्राय के अनुसार वस्तु स्वरूपको समझने में विपरीतता होनेकी सम्भावना नहीं रहती । किन्तु जो इस अपेक्षाभेदको स्वीकार नहीं करते और वस्तुको सर्वथा एकान्तात्मक मानते हैं वे वस्तुके यथार्थस्वरूपको नहीं जानते । यही बात आगे कहते हैं
इस प्रकार जो पूर्वोक्त धर्मीको 'स्यात्' सापेक्ष ग्रहण नहीं करता है उसे मिथ्यादृष्टि जानना चाहिए, ऐसा आगम में कहा है ॥७३॥
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[ गा० ७३
विशेषार्थ - वस्तुस्वरूपको यथार्थ देखनेकी जिसकी दृष्टि ठीक नहीं है उसे मिथ्यादृष्टि कहते हैं । वस्तु अनेकान्तात्मक है- परस्पर में विरोधी प्रतीत होनेवाले अनन्त धर्मोका एक अखण्ड पिण्ड है । वह न केवल सत् है और न केवल असत् है किन्तु सदसदात्मक है। न केवल नित्य है और न केवल अनित्य है किन्तु नित्यानित्यात्मक है । न सर्वथा भेदरूप है और न सर्वथा अभेदरूप है किन्तु भेदाभेदात्मक है । ऐसी वस्तुको जो सर्वथा सत्, सर्वथा नित्य और सर्वथा अभेदरूपसे देखता है वह मिथ्यादृष्टि है । इसी तरह जो उसे सर्वथा असत् सर्वथा अनित्य या सर्वथा भेदरूप देखता है वह भी मिध्यादृष्टि है । किन्तु जो उसे सदसदात्मक, भेदाभेदात्मक और नित्यानित्यात्मक देखता है वह सम्यग्दृष्टि । वह जानता है कि वस्तु स्यात् सत् है स्यात् असत् है, स्यात् नित्य है, स्यात् अनित्य है आदि । अतः इस ग्रन्थ में वस्तुमें जो स्वभाव बतलाये हैं वे सब स्यात् सापेक्ष ही जानने चाहिए, सर्वथा नहीं ।
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