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[ गा० ६९
कान्तपक्षेऽपि नात्मज्ञता संभवति नियमितपक्षत्वात् । तथात्मनोऽनुपचरितपक्षेऽपि परज्ञतादीनां विरोधः । उभयेकान्तपक्षेऽपि विरोधः एकान्तत्वात् । तह्यंनेकान्तेऽपि कस्मान्न भवति । स्याद्वादात् । स च क्षेत्रादिभेदे दृष्टोऽहिनकुलादीनाम् । स च व्याघातकः, सहानवस्थालक्षणः, प्रतिबन्ध्य प्रतिबन्धकश्चेति, अनवस्थानादिकं वा । तत्रानवस्थानं द्विविधं गुणानामेकाधारत्वलक्षणं गगनतलावलम्बीति (?) । संकरः व्यतिकरः अनवस्था अभावः अदृष्टकल्पना दृष्टपरिहाणिः विरोधः वैयधिकरण्यं चेति अष्टदोषाणां एकान्ते संभवः ।
द्रव्यस्वभावप्रकाशक
नानास्वभावसंयुक्तं द्रव्यं ज्ञात्वा प्रमाणतः । तच्च सापेक्षसिद्धयर्थं स्यान्नयैर्मिश्रितं कुरु ॥१॥ भावः स्यादस्ति नास्तीति कुर्यान्निर्बाधमेव तम् । फलेन चास्य संबन्धो नित्यानित्यादिकं तथा ॥ २॥
कर्मबन्धन अहेतुक हो जायेगा और अहेतुक होनेसे उसका विनाश सम्भव नहीं होगा । यदि कदाचित् सम्भव भी हो तो शुद्ध होने पर वह पुनः कर्ममलसे लिप्त हो जायेगा । यदि आत्माको सर्वथा अशुद्ध माना जायेगा तो उसे कभी भी शुद्धता प्राप्त नहीं हो सकेगी, क्योंकि वह तो सर्वथा अशुद्ध है । आत्माको सर्वथा उपचरितस्वभाव मानने पर आत्मामें आत्मज्ञता नहीं बनेगी और सर्वथा अनुपचरित स्वभाव माननेपर परज्ञता आदि नहीं बनेगी । इसका आशय यह है कि स्वभावका अन्यत्र उपचार करनेको उपचरित स्वभाव कहते हैं तो अनुपचरित स्वभावसे तो आत्मा आत्मज्ञ हैं और उपचरित स्वभावसे परवस्तुका ज्ञाता है । इन दोनों में से किसी एक स्वभावको एकान्त रूपसे मानने पर दूसरा नहीं बनेगा । अतः या तो आत्मा केवल आत्मज्ञ ही बन सकेगा या केवल परज्ञाता ही हो सकता है। दोनों एकान्तोंको एक साथ मानने में भी विरोध आता है, क्योंकि दो एकान्तोंका एक साथ रहना सम्भव नहीं है अर्थात् एक ही वस्तु सर्वथा नित्य भी हो और सर्वथा अनित्य भी हो यह कैसे सम्भव हो सकता है। एकान्त रूपसे या तो नित्यता ही सम्भव है या अनित्यता ही सम्भव है। हाँ, अनेकान्तवादमें दो परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाले धर्म अपेक्षा भेदसे एक साथ एक वस्तुमें रह सकते हैं । उसमें कोई विरोध नहीं है । विरोध तीन प्रकारका होता है - सहानवस्थान रूप, परस्पर परिहार स्थितिरूप और वध्यघातक रूप । सहानवस्थानरूप विरोध तो सम्भव नहीं है क्योंकि एक ही वस्तु में भेद - अभेद, सत्त्व असत्त्व आदि धर्म अपेक्षा भेदसे देखे जाते हैं । परस्पर परिहारस्थिति रूप विरोध तो एक आम्रफल में रूप और रसकी तरह एक साथ रहनेवाले दो धर्मो में ही सम्भव होता है । वध्यघातक भावरूप विरोध भी सर्प और नेवले की तरह बलवान् और कमजोरमें ही होता है । किन्तु एक ही वस्तु में रहनेवाले सत्त्व असत्व, भेद-अभेद, नित्य-अनित्य आदि धर्म तो समान बलशाली हैं, अतः उनमें यह विरोध भी सम्भव नहीं है । हाँ, एकान्तवाद में ही संकर, व्यतिकर, अनवस्था, अभाव, अदृष्टकल्पना, दृष्टहानि, विरोध और वैयधिकरण नामक आठ दोष आते हैं ।
इस प्रकार प्रमाणके द्वारा नाना स्वभावोंसे संयुक्त द्रव्यको जानकर उसकी सापेक्ष सिद्धिके लिए नयोंसे उन्हें मिलाना चाहिए । अर्थात् नयोंके द्वारा द्रव्यके नाना स्वभावोंको जानना चाहिए कि किस अपेक्षा से द्रव्यमें कौन स्वभाव है ।
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इस प्रकार नयोंकी योजना करनेसे पदार्थ बिना किसी प्रकारकी बाधा के कथंचित् अस्ति और कथंचित् नास्ति, कथंचित् नित्य, कथंचित् अनित्य आदि सिद्ध होता है और ऐसा होनेसे जो करता है वही उसका फल भोगता है ।
१. अष्टो दोषा एकान्तसंभवाः । श्लोकः - अ० ज० ॥
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