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नहि किंचित्सदिति शून्यपक्षे दूषणमाह
"संत जो ण हुमण्णइ पच्चक्खविरोहियं हि तस्स मयं । गोयं ण हि णाणं ण संसयं णिच्छयं जम्हा ॥४९॥ सर्व सर्वत्र विद्यते इति सर्वगतत्वपक्षे दूषणमाह
द्रव्यस्वभावप्रकाशक
अभेदपक्ष में दूषण देते हैं
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सव्वं जइ सव्वगयं विज्जदि इह अत्थि कोइ ण दरिद्दी । सेवावणिज्जकज्जं ण कारणं किं पि कस्सेव ॥५०॥ यं गाणं उहयं तिरोहियं तं च जाणणमसक्कं । अहवाविरभावगयं सव्वत्य वियाणए सव्वं ॥ ५१ ॥
जो गुण गुणीको अभिन्न मानते हैं उनका कथन युक्ति रहित है। जो यहाँ युक्तिसे सिद्ध नहीं होता वह परमतत्त्व नहीं है ||४८ ||
[ गा० ४९
विशेषार्थ - गुण और गुणी में सर्वथा भेदकी तरह सर्वथा अभेद भी नहीं है । उनमें सर्वथा अभेद माननेसे गुण और गुणी जैसा भेद व्यवहार भी सम्भव नहीं हो सकता। और ऐसी स्थिति में या तो गुण ही रहेंगे या गुणी ही रहेगा । किन्तु गुणोंके बिना गुणी नहीं रह सकता और गुणीके बिना गुण नहीं रह सकते । अतः सर्वथा भेदकी तरह सर्वथा अंभेदमें भी शून्यताका प्रसंग आता है। इसलिए गुण गुणी में वस्तुरूप से अभेद और संज्ञा लक्षण प्रयोजन आदिकी अपेक्षा भेद मानना चाहिए।
कुछ भी सत् नहीं है इस प्रकारके शून्य पक्ष में दूषण देते हैं
जो
कुछ भी 'सत् नहीं मानता उसका मत प्रत्यक्ष विरुद्ध है। क्योंकि उसका यह निश्चय है किन ज्ञेय है, न ज्ञान है और न संशय है ||४९||
विशेषार्थ-संसार में ज्ञेय भी है और ज्ञान भी है, इसोसे जब कभी संशय भी हो जाता है कि यह साँप है या रस्सी । संशय भी वस्तुके अस्तित्वको ही सिद्ध करता है क्योंकि जो चीजें वर्तमान होती हैं उन्हीं को लेकर संशय होता है । यह गधेकी सींग है या घोड़े की सींग है ऐसा संशय नहीं होता क्योंकि न गधेके सींग होते हैं और न घोड़े के सींग होते हैं। हाँ, गधा, घोड़ा और सींग जरूर हैं। तथा जब ज्ञान और ज्ञेय ही नहीं है तब हम शून्यवादको ही कैसे जान सकते हैं क्योंकि यदि हम जानते हैं कि शून्यवाद है तो ज्ञान और ज्ञेयका अस्तित्व सिद्ध हो जाता है क्योंकि जो जानता है वह ज्ञान है और जिसे जानता है वह ज्ञेय है । अतः शून्यवाद ही ज्ञेय हो जाता है । और यदि शून्यवाद ज्ञेय-ज्ञानका विषय नहीं होता तो 'शून्यवाद है' यही सिद्ध करना शक्य नहीं है । अतः सर्वथा शून्यवाद भी निरापद नहीं है ॥
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सब सर्वत्र विद्यमान है ऐसा माननेवाले सांख्यों के सर्वगतत्व पक्ष में दूषण देते हैंयदि सब वस्तुएँ सब जगह विद्यमान हैं तो संसार में कोई दरिद्र नहीं होना चाहिए । तथा सेवा व्यापार आदि कार्य और किसी का भी कोई कारण नहीं होना चाहिए ॥ ज्ञेय और ज्ञान यदि दोनों तिरोहित हैं तो उनको जानना शक्य नहीं है । और यदि उनका आविर्भाव है तो सर्वत्र सबको जानना चाहिए ||५०-५१ ।।
विशेषार्थ - सांख्य दर्शन उत्पत्ति और विनाशको नहीं मानता, आविर्भाव और तिरोभावको मानता है क्योंकि वह सत्कार्यवादी है । उसका मत है कि कार्य कारणमें विद्यमान रहता है अतः वह उत्पन्न नहीं होता प्रकट होता है । कुम्हार मिट्टीसे घड़ा उत्पन्न नहीं करता, घड़ा तो मिट्टी में पहलेसे वर्तमान है कुम्हार
१. सत्तं अ० मु० । २. ण हु क० अ० ।
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