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प्रस्तावना
ज्ञानचेतना प्रधान आत्मतत्त्व की उपलब्धि का बीज है । सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के सद्भाव के कारण समस्त अमार्गों से छूटकर जो स्वतत्त्व में विशेषरूप से आरूढ़ हुए हैं, उन्हें इन्द्रिय और मन के विषयभूत पदार्थों में राग-द्वेषपूर्वक विकार का अभाव होने से जो निर्विकार ज्ञानस्वभाव समभाव होता है, वह सम्यक्चारित्र है । यह सम्यक्चारित्र वर्तमान में और आगामी काल में भी सुन्दर होता है तथा अपुनर्जन्म के महान् सुख का बीज है अर्थात् इसी में से मोक्षसुख का उद्गम होता है ।
जैन अध्यात्म के मूर्धन्यमणि आचार्य अमृतचन्द्र के वचनों से सच्चे व्यवहार की उपयोगिता तथा निश्चय और व्यवहार में साध्य - साधन भाव स्पष्ट हो जाता है । आचार्यजी ने निश्चय और व्यवहार में साध्य-साधन भाव घटित करते हुए दो दृष्टान्त दिये हैं । जैसे धोबी मलिन वस्त्र को पत्थर पर पछाड़कर निर्मल जल से धोकर उजला करता है या जैसे स्वर्णपाषाण अग्नि के संयोग से स्वर्णरूप परिणत होता वैसे ही व्यवहारी भी तपस्या आदि के द्वारा आत्मा की शुद्धि करता है । इसमें व्यवहार में तो यही कहा जाता है कि साबुन जल के योग से वस्त्र उजला हुआ या अग्नि के योग से स्वर्णपाषाण स्वर्ण हुआ, किन्तु यथार्थ में उजलापना वस्त्र में ही था, उसी में से प्रकट हुआ । स्वर्णपाषाण में से स्वर्ण ही स्वर्णरूप परिणत हुआ पाषाण नहीं, फिर भी स्वर्णपाषाण को स्वर्ण का साधन कहा जाता है; उसी तरह सम्यग्दर्शनादि से आत्मा की तरफ जीव का जो उपयोग है, वही उसकी प्राप्ति में हेतु है । इसे आगे स्पष्ट किया जाता है
व्यवहार सम्यग्दर्शन और निश्चय सम्यग्दर्शन
सिद्धान्त ग्रन्थों में सम्यग्दर्शन के दो भेद मिलते हैं-सराग सम्यग्दर्शन और वीतराग सम्यग्दर्शन । तथा अध्यात्म ग्रन्थों में व्यवहार सम्यग्दर्शन और निश्चय सम्यग्दर्शन भेद मिलते हैं। इनकी संगति यह बैठायी गयी है कि जिसे सिद्धान्त में सराग सम्यग्दर्शन कहा है, वही अध्यात्म में व्यवहार सम्यग्दर्शन है और जिसे सिद्धान्त में वीतराग सम्यग्दर्शन कहा है, वही अध्यात्म में निश्चय सम्यग्दर्शन है। असल में राग का ही नाम व्यवहार है और वीतराग का नाम निश्चय है ।
सराग या व्यवहार सम्यग्दर्शन पाँच लब्धिपूर्वक मिथ्यात्व आदि सात कर्मप्रकृतियों के उपशमादि से होता है। जयसेनजी ने कहा है- 'यदाऽयं जीव आगमभाषण कालादिलब्धिरूपमध्यात्मभाषया शुद्धात्माभिमुखपरिणामरूपं स्वसंवेदनज्ञानं लभते तदा प्रथमतस्तावद् - मिथ्यात्वादि सप्तप्रकृतीनामुपशमेन क्षयोपशमेन च सरागसम्यग्द्दष्टिर्भूत्वा पंचमरमेष्ठिभक्त्यादिरूपेण पराश्रितधर्म्यध्यानबहिरंगसहकारित्वेनानन्त - ज्ञानादि-स्वरूपोऽहमित्यादि भावनास्वरूपमात्माश्रितं धर्म्यध्यानं प्राप्य आगमकथितक्रमेणासंयतसम्यग्दृष्ट्यादि-गुणस्थानचतुष्टयमध्ये क्वापि गुणस्थाने दर्शनमोहक्षयेण क्षायिकसम्यक्त्वं कृत्वा तदनन्तरमपूर्वादिगुणस्थानेषु प्रकृतिपुरुषनिर्मल विवेकज्योतिरूपप्रथमशुक्लध्यानमनुभूय रागद्वेषरूपचारित्रमोहोदयाभावेन निर्विकार-शुद्धात्मानुभूतिरूपं चारित्रमोहविध्वंसनसमर्थं वीतरागचारित्रं प्राप्य मोहक्षपणं कृत्वा ... । - पञ्चास्ति. टी. गा. १५०-१५१
'जब यह जीव आगम की भाषा में कालादिलब्धिरूप और अध्यात्म की भाषा में शुद्धात्मा के अभिमुख परिणामरूप स्वसंवेदनज्ञान को प्राप्त करता है, तब प्रथम ही मिध्यात्व आदि सात प्रकृतियों के उपशम और क्षयोपशम से सरागसम्यग्दृष्टि होकर पंचपरमेष्ठी की भक्ति आदि रूप से पराश्रित धर्म्यध्यान को बहिरंग सहायक बनाकर ‘मैं अनन्तज्ञानादि स्वरूप हूँ' इत्यादि भावना रूप आत्माश्रित धर्म्यध्यान को करता है और तब आगम कहे हुए क्रम के अनुसार असंयत सम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानों में से किसी भी गुणस्थान में दर्शनमोह का क्षय करके क्षायिकसम्यक्त्व को प्राप्त करता है। उसके पश्चात् अपूर्वकरण आदि गुणस्थानों में निर्मल भेदज्ञानरूप प्रथम शुक्लध्यान को करके रागद्वेष रूप चारित्रमोह के उदय का अभाव होने से चारित्र - मोह के विध्वंस करने में समर्थ निर्विकार शुद्धात्मानुभूति रूप वीतरागचारित्र को प्राप्त करके मोह का क्षय करता है ।' उक्त कथन के अनुसार जिन्हें आगम में पाँच लब्धि कहा है, अध्यात्म में उसे स्वसंवेदन ज्ञान कहते हैं जो शुद्धात्मा के अभिमुख परिणामरूप है । इसी से इस स्वसंवेदन ज्ञान को वीतराग भी कहा है ।
यही शुद्धात्मा के अभिमुख परिणामरूप स्वसंवेदन आगे बढ़ने पर शुद्धात्मानुभूतिरूप स्वसंवेदन हो जाता
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