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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
[गा०७
एकक्षेत्रनिवासित्वेन संकरादिदोषपरिहारमाह
'अवरोप्परं विमिस्सा तह अण्णोण्णावगासदा णिच्चं । संता वि एयखेत्ते ण परसहावे हि गच्छंति ॥७॥
इति पीठिकानिर्देशः ।
किन्तु वास्तवमें न वे किसी के कारण हैं और न कोई उनका कार्य है। जो किसीको उत्पन्न करता है वह उसका कारण होता है और जो उत्पन्न होता है , वह उसका कार्य होता है। किन्तु न तो यह लोक उन द्रव्योंका कार्य है और न वे द्रव्य उसके कारण है। यह तो अनादिकालसे ऐसा ही चला आता है। फिर भी, चूंकि सब द्रव्योंके समवाय से लोक बना हुआ है ,इसलिए कार्य-कारणका व्यवहार कर लिया जाता है। जैसे तत्त्वार्थस
। सब द्रव्योंका अवगाह लोकाकाशमें बतलाया है। किन्तु यह कथन भी व्यवहार दृष्टिसे ही किया गया है निश्चय दृष्टिसे तो कोई किसीके आधार नहीं है। सब द्रव्य अपने ही आधार है, उसी तरह कार्यकारण भावके सम्बन्धमें भी जानना चाहिए ।
आगे कहते हैं कि एक क्षेत्रमें रहते हुए भी वे द्रव्य अपने-अपने स्वभावको नहीं छोड़ते
वे सब द्रव्य परस्पर में मिले-जुले हुए हैं और एक-दुसरेको अवकाश दिये हुए हैं। तथा सदा एक क्षेत्रमें रहते हैं, फिर भी अपने-अपने स्वभावको छोडकर अन्य स्वभावरूप नहीं होते ॥ ७॥
विशेषार्थ-ऊपर कहा है कि इन्हीं सब द्रव्योंसे तीनों लोक बने है। अर्थात् ये छहों द्रव्य लोकमें रहते हैं। या यह भी कह सकते हैं कि जितने आकाशमें सब द्रव्य पाये जायें, उसे लोकाकाश कहते हैं । आकाश तो सर्वव्यापक है। लोकाकाशमें तो सर्वत्र है ही, उससे बाहर भी सर्वत्र है। किन्तु शेष पाँच द्रव्य लोकाकाशमें ही हैं, बाहर नहीं हैं। उनमें से भी धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य समस्त लोकमें व्याप्त हैं । अर्थात् लोकमें जहाँ आकाश है. वहीं ये दोनों द्रव्य भी हैं। कालद्रव्य भी लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेशपर एक-एक कालाणुके रूपमें स्थित है। इस तरहसे वह भी समस्त लोकमें व्याप्त है । जीव तो अपने-अपने शरीरके प्रमाण होनेसे यद्यपि शरीरव्यापी है,फिर भी एक ऐसी भी स्थिति आती है जब कुछ क्षणके लिए वह भी फैलकर समस्त लोकमें व्याप्त हो जाता है। और पुद्गल परमाणु तो इस लोकमें सर्वत्र भरे हुए हैं। इस तरह लोकमें छहों द्रव्य यद्यपि परस्परमें रिलेमिले-से रहते हैं, फिर भी अपने-अपने स्वभावको छोड़कर अन्य द्रव्यरूप नहीं हो जाते । न धर्मद्रव्य अधर्म आदि अन्य द्रव्य रूप होता है और न अन्य कोई द्रव्य धर्मादि द्रव्यरूप होता है। जीव और पदगलद्रव्य तो संसारी जीव और कर्मके रूप में अनादिकालसे दूध-पानी की तरह मिले हुए है.फिर भी न जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्यरूप परिणमन करता है और न पुद्गलद्रव्य जीवद्रव्यरूप परिणमन करता है । जो चेतन है वह चेतन ही रहता है, जो अचेतन है वह अचेतन ही रहता है । अचेतनोंमें भी जो मूर्तिक द्रव्य है वह मूर्तिक ही रहता है , जो अमूर्तिक है वह अमूर्तिक ही रहता है। इस तरह जिस-जिस द्रव्यका जो स्वभाव है, अन्य द्रव्यके संयोगसे उस स्वभावमें अन्य द्रव्यरूप परिवर्तन नहीं होता । सब द्रव्य अपनेअपने स्वरूपमें ही स्थिर रहते हैं।
पीठिका समाप्त
१. 'अण्णोण्णं पविसंता दिता ओगासमण्णमण्णस्स । मेलंता विय णिच्चं सगंसभावं ण विजहंति ॥पञ्चास्ति० गा० ७ ।
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