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नयचक्र जीवगुणविमावपर्यायाचिदर्शयति
मदिसुदओहीमणपज्जयं च अण्णाण तिणि जे भणिया।
एवं जीवस्स इमे विहावगुणपज्जया सव्वे ॥२३॥ जीवद्रव्यस्वभावपर्यायान्प्रदर्शयति
देहायारपएसा जे थक्का उहयकम्मणिम्मुक्का' ।
जीवस्स णिच्चला खलु ते सुद्धा दव्वपज्जाया ॥२४॥ जीवगुणस्वभावपर्यायाग्निदर्शयति
२णाणं दंसण सुह वीरियं च जं उहयकम्मपरिहीणं ।
तं सुद्धं जाण तुमं जीवे गुणपज्जयं सव्वं ॥२५॥ जीवके प्रदेशोंका शरीर परिमाण होना विभाव द्रव्यपर्याय है। किन्तु जब जीव पूर्व शरीरको छोड़कर नया शरीर धारण करनेके लिए मोड़े पूर्वक गमन करता है तब यद्यपि उसके शरीर नहीं होता, फिर भी उसकी आत्माके प्रदेशोंका वही आकार बना रहता है जिस शरीरको छोड़कर वह आया है। अतः उसकी यह परिणति भी विभाव द्रव्य पर्याय है।
जीवकी विभाव गुणपर्यायोंको बतलाते हैं
मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और तीन अज्ञान-कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिज्ञान ये सब जीवको विभाव गुणपर्याय हैं ।। २३ ।।
विशेषार्थ-जीवका स्वाभाविक गुण ज्ञान है जो मुक्तावस्थामें केवलज्ञानके रूपमें प्रकट होकर सब द्रव्योंकी सब पर्यायोंको जानता है। किन्तु वही ज्ञानगुण संसार अवस्थामें विकृत होकर मतिज्ञानादि रूपसे परिणमन करता है,अतः ज्ञानगुणकी यह विकारयुक्त पर्याय विभावपर्याय कहलाती हैं और केवलज्ञानरूप अवस्था उसकी स्वभाव पर्याय है।
जीव द्रब्यकी स्वभाव पर्यायोंको कहते हैं
जीवके द्रव्य भावकर्मोंसे मुक्त हुए जो प्रदेश शरीराकार रूपसे स्थित होकर निश्चल हैं वे शुद्ध द्रव्यपर्याय हैं ॥ २४ ॥
विशेषार्थ-द्रव्यको शुद्ध पर्यायको ही स्वभाव पर्याय कहते हैं। जीवद्रव्यके प्रदेश शरीराकार होते हैं । मुक्त हो जानेपर भी वे प्रदेश किंचित् न्यून शरीराकार ही रहते हैं। फिर उनमें कोई हलन-चलन नहीं होता और न अन्याकार रूपसे परिणमन होता है। बस, उनकी यह अवस्था ही जीव द्रव्यकी स्वभाव पर्याय है, क्योंकि उसके होने में अब कोई परनिमित्त नहीं है । यद्यपि जिस शरीरको छोड़कर जीव मुक्त होता है वह शरीर कर्मोंके निमित्तसे होता है और उस शरीरके कारण ही मुक्त होनेपर भी उसके आत्मप्रदेश तदाकार रहते हैं, किन्तु मुक्त होनेपर जो उसके प्रदेशोंकी पूर्व शरीराकार स्थिति रहती है उसमें अब किसी कर्मका निमित्त शेष नहीं है, अतः वही उसकी स्वाभाविक अवस्था मानी जाती है ।
आगे जीवको स्वभाव गुणपर्यायोंको कहते हैं
जीवमें जो द्रव्यकर्म और भावकमसे रहित ज्ञान,दर्शन,सुख और वीर्यगुण होते है उन्हें तुम जीवकी शुद्ध गुणपर्याय जानी ॥२५॥ १. कम्मविमुक्का आ० । २. 'स्वभावपर्यायस्तावत् द्विप्रकारेणोच्यते कारणशुद्धपर्यायः कार्यशुद्धपर्यायश्चेति । इह हि सहजशुद्धनिश्चयेन अनाद्य निधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसहजज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजपरमवीतरागसुखात्मकशुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूपस्वभावानन्तचतुष्टयस्वरूपेण सहाश्चितपञ्चमभावपरिणतिरेव कारणशुद्धपर्याय इत्यथः । साद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहारेण केवलज्ञान-केवलदर्शन-केवलसुख-केवलशक्तियुक्तफलरूपानन्तचतुष्टयेन साद्ध परमोत्कृष्टक्षायिकभावस्य शुद्धपरिणतिरेव कार्यशुद्धपर्यायश्च ।'-नियमसारटीका, गा०१५।
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